आलेख- प्रेम पियाला भर भर दीजै

 

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

 कहते हैं कि प्रभु श्रीराम के वनगमन में, जिस ओर, जिस दिशा से वह निकलते थे; शाख हरिया जाते थे। जनम लगते हैं शाख बन जाने को भी! यह उतना भी सरल नहीं, जितना प्रतीत होता है। वर्ष चले जाते हैं। जन्म की काया धूमिल हो जाती है। सब सञ्चित छूट जाता है। प्रतीक्षा की सघन तपन को समय रेतता रहता है। देह की सीमा छोटी हो जाती है। तभी तो राम वन चुनते हैं चलने को। चुनते हैं पीड़ाओं की न चुकने वाली अन्तहीन राहों को। चुनते हैं कि प्यास में भी जो प्यास का अनुभव है, वह बच जाय। रह जाय। तर करते हैं वे राहों को। राह की नमी को। अनगिन तपश्चर्या को। तभी तो एकान्त को पारते हैं। ध्वनियों को ठहराते हैं। राम लोक में उतरते हैं। लोक उन्हें जोहता है। विरह उनसे परितृप्त होता है। जिन्होंने स्वयं को राम के लिए चुन लिया था, वे गति, अगति, जड़, चेतन, सूक्ष्म, स्थूल, हर विधि में विधि के मन्तव्य से हो भर आये। शेष तो राम करेंगे। तृप्ति तो एक सूक्ष्म संचरण है। वह देह को होता भी कहाँ है! वह तो देहपार है। तब इस बात से क्या प्रयोजन कि प्रभु श्रीराम के समक्ष क्या होकर जाना है। वहाँ तो बस होना है। कोई फूल हो आया कि राम देखकर प्रसन्न होंगे, कि स्पर्श करेंगे। कोई पत्थर होकर बिछ गया कि राम के चरण चूम सके। कोई झरना हो आया कि कण्ठ तक उतर सके। तो कोई सूख गया कि बिछ सकूँ होकर बिछावन, कि छप्पर हो जाऊँ प्रभु की छाया में। जब इतनीं पात्रता आवे, जब इतना प्रेम भरे, तब क्योंकर न राम वनगमन करें।



प्रेम ऐसी ही पात्रता है। एक ऐसी अवस्था जहाँ लघुता में भी परमावस्था है। जब कोई प्रेम चुनता है तब वह और कुछ चुने जाने के भार से मुक्त हो जाता है। तब गोपी होकर भी संतुष्टि है। विरह भी किनारा है। तब मीरा होकर समय को सहस्र बरस पहले धकेला जा सकता है। प्रेम तो सूर को भी दृष्टि दे जाता है। रामकृष्ण को सीढ़ियों पर लेटाकर सुदूर आकाश में उतार जाता है। काली स्वयं सेवा करने लगती हैं। आदिशंकर अन्तिम में ठहर जाते हैं। प्रेम में ही चैतन्य पुलकित होकर नाचने लगते हैं। प्रेम की घाटियों से ही पर्वत का उत्कर्ष होता है। देह तो भोक्ता है। माध्यम। किन्तु वह जो अनुभावित है, वह तो देह के परे है।
प्रेम की कोई मुक्ति नहीं! यह सदा रहेगा। अस्तित्व कभी मरता नहीं। प्रेम तो अस्तित्व का कारक है। प्रेरक है। इस अनन्तता में यों ही सबकुछ होता रहेगा। कृत्य होंगे। फल होगा। किन्तु प्रेम इन सबसे अछूता निकल जावेगा। वह सदा देहातीत रहेगा। शब्दातीत होकर शब्दों को उनकी सीमा में नाप जायेगा। कहने को कुछ होगा और कहा कुछ जायेगा। यह अपने राग, अपनी निर्मूल ध्वनियों से जगत को फेरता रहेगा। जो उतरेगा, यह उसे उतारेगा। ढाल लेगा स्वयं में। यह चुपचाप व्याप जाता है। निश्शब्द। अनाहट। नैरन्तर्य। रत्ती भर भी नहीं छोड़ता। सबकुछ निचोड़ लेता है। और जब कुछ भी शेष न रहे तो पुनः रहने को क्या ही रहे।



देखता हूँ दिन किसी भाप की भाँति अदृश्य हो रहा। वय की नाप, मनुष्यों के मापन में कहाँ अटती है। वर्ष गिन लेने को हैं। ज्ञान धर लेने को। मुक्ति को कैसे मापा जाय भला! जितना जानो, यह अखण्डता उसे बौना करती जाती है। बौना संसार है यह। उपस्थित को पुनः अपने निष्कर्षों से सिद्ध करते जाना ही मानवीय उपादेयता। किन्तु कहीं तो कुछ है जो अविभाज्य है। जो उपयोगिताओं से पृथक होकर अपनी सत्ता में, विद्यमानता में गतिमान है। उपयोग तो इस जीवन भर है। किन्तु इस जीवन के पार का क्या। कोई ऋषि मुझसे कहता है कि ठहरो। कोई तत्वदर्शी चुप करा जाता है और कहता है कि चरैवेति! चरैवेति!
तब प्रेम पियाला लेता हूँ। उसे नदी देकर जाती है। पहाड़ पिला जाते हैं। कोई चुप सी चिड़िया औचक ही उसमें से एक बूँद पार जाती है। कोई शिशु अपनी बाहों को खोले, दौड़ता हुआ मुझसे लिपट जाता है। उसकी तुतलाती बोलियों से पियाला कुछ और छलक जाता है। नभ में उतराता शुकवा उसे खींचता है। सप्तर्षि अपने सात पाये बिछाकर मुझे बुलाते हैं। तारे चुपचाप घेर लेते हैं। निघ्नान तो बस एक ही है। उसके सङ्ग ही पी लेने को जीवन चलकर आया है। प्रेम तो दुरवसित है। भर जाय तो छलकेगा ही, आ जाय तो झलकेगा ही..!

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