कविता : मत ढूढ़ना मुझको
आशीष तिवारी निर्मल
सुबह का सूरज हूँ मैं,रात के तारों में मत ढूढ़ना मुझको
मुस्कुराता ही मिलूँगा मैं,गम के मारों में मत ढूढ़ना मुझको।
मिल जाऊंगा किसी मंदिर मे होते भजन,कीर्तन के जैसे
यूँ सड़कों से गुजरते जुलूस के नारों में मत ढूढ़ना मुझको।
अपनी एक अलग ही दुनिया बसा रखी है सबसे दूर मैं ने
ढूढ़ना तो अपने दिल में,भीड़ हजारों में मत ढूढ़ना मुझको।
होंगे कोई और वो जो मर मिटते हैं तेरी हर एक अदा पर
अपने ऐसे बिगड़े,लफंगे,लुच्चे,यारों में मत ढूढ़ना मुझको।
खुश्बू बिखेरता फिरता है यह निर्मल जमाने में चहुंओर
जब भी ढूढ़ना गुलों में ढूढ़ना,खारों में मत ढूढ़ना मुझको।
इंसान हूँ सिर्फ इंसानियत की बात करता हूँ सदा से ही मैं
जातिवादी,ब्राम्हण,क्षत्रिय,डोम,चमारों में मत ढूढ़ना मुझको।
लालगांव जिला रीवा
मध्यप्रदेश।
9399394911
Source :Through E. Mail
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