कविता-   ख्वाहिश


           आरती त्रिपाठी


रूसवाईयों के डर से कभी मोहब्बत नहीं की।
खूब दिल से चाहा बस कहने की जुर्रत नहीं की ।


कौन कहता है कि दिल  किसी का धड़का नहीं ।
शोला इश्क का दिल में कब किसी के भड़का नहीं ।


खुदा तो लाखों मिले हमें दिल में बसने के लिए ।
बस हमने ही कभी किसी की इबादत नही की ।


आसान था बहुत किसी के दिल को अपनाना ।
मुश्किल लगा बस किसी के दिल में रह पाना । 


दिल की गलियों में किसी के रोज करते रहे बसेरा ।
सुबह ओ शाम लगाते रहे किसी के घर का फेरा   ।


कौन कहता है इस दिल ने किसी की आरजू नहीं की ।
कौन सा पल बीता जब वफा की मैने जुस्तजू नहीं की ।  


गुजरते हुए लम्हों में चाहते थे हम भी ठहर जाना ।
पर दिल ने मेरे जमाने से कभी बगावत नहीं की   ।


तड़पता रहा दिल किसी की खैर ओ ख्वाहिश में  ।
मगर कभी उम्मीदे वफा की दिल ने चाहत नहीं की ।


सफर जिंदगी का तन्हा तय कर पाना मुश्किल था ।
फिर भी किसी के साथ दिल लगाने की शरारत नहीं की ।


लोग यूँ ही पाबंदियों के तलबगार हुआ करते हैं  ।
मैंने जिंदगी किसी के पाबंदियों के बाबत नहीं की ।


 सीधी, मध्यप्रदेश 


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