आलेख : गुरु क्यों आवश्यक है?

 

 प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

 

 

आचार्य रजनीश ने अपनी एक पुस्तक 'एक ओंकार सतनाम' के आरंभ में एक प्रश्न उठाया है, कि आध्यात्म-साधना में गुरु क्यों आवश्यक है?वे इसी प्रश्न से संबंधित एक और प्रश्न पूछते हैं कि क्या गुरु न हो तो साधक जो प्राप्त करना चाहता है, वह प्राप्त कर सकता है अथवा नहीं?हम जानते हैं कि आध्यात्म-साधन के कई मार्ग हैं, किन्तु सभी मार्गों में गुरु का अवकाश शेष रहता है। कितना भी प्रतिभावान व्यक्ति हो, कैसा भी दृढ़ निश्चयी और वैरागी व्यक्ति हो, कैसी भी भाव विह्वलता और समर्पण हो, कर्तव्य कर्म के प्रति कैसी भी आस्था हो, गुरु के बिना लक्ष्य प्राप्ति होती नहीं दिखती।इतिहास इसका उदाहरण है। पृथिवी पर जिन बड़े से बड़े महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने संसार के इतिहास और  उसकी नियति को बदला, उन्होंने भी गुरु को स्वीकार कर पहले कोई साधना की, यहां तक कि अवतार कहे जाने वाले व्यक्ति-पुरुषों ने भी शिक्षा के लिए गुरु विशेष का शिष्यत्व स्वीकार किया।जो ईश्वर है, वह आदर्श और विहित की स्थापना के लिए, लोक शिक्षण के लिए शिष्य बनता है, बनकर ज्ञानार्जन करता है, मुक्ति-लाभ करता है। भगवान बुद्ध और श्रीरामकृष्ण परमहंस का उदाहरण इसी कोटि का है।श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे, 'ईश्वर ही गुरु रूप में आते हैं।' वे इस कथन के माध्यम से अपने स्वस्वरूप के साथ-साथ ईश्वर और गुरु के तत्त्व का भी संकेत कर रहे होते थे। ईश्वर को क्या गर्ज है, अथवा गुरु को क्या पड़ी है  कि वह स्वयं साधनाकर, सिद्धि और मुक्ति प्राप्त कर , लोकोद्धार के लिए कार्य करे। इसके उत्तर के लिए हमारे सामने श्रीरामकृष्णदेव का जीवन है। भगवान बुद्ध का जीवन और कर्म भी सरलता से इन्हीं बातों को हमें समझा देता है।आचार्य रजनीश ने एक दूसरे ढंग से इसे समझाया है। उन्होंने कहा कि आध्यात्म-साधना अथवा ज्ञान प्राप्ति स्वयं से भी हो सकता है, किन्तु तब व्यक्ति को होगा कि मुझे यह स्वयं से हुआ, मुझे खुद ही हो गया, मेरे उद्यम का ही यह फल है, और आचार्य रजनीश ने कहा है कि यह बोध उसे सतत बना ही रहेगा, और यही अहंकार है। इसलिए वहां साधना में सदैव एक गुरु है, और साधक यह मानता /समझता है कि जो हो रहा है वह गुरु की कृपा से हो रहा है।स्वामी विवेकानंद ने इसे दूसरी तरह से कहा है। अपने गुरु के जाने के बाद मास्टर महाशय से और अनेकत्र भी उन्होंने बड़े भावपूर्ण शब्दों में गुरु-तत्त्व का व्याख्यान किया है। आचार्य शंकर से लेकर गोरखनाथ और कबीर तक ने गुरु की महिमा में गीत गाये हैं। भारतीय परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोपरि रहा है।
 
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