राजनीतिक कुचक्र की भेंट चढ़ता किसान आन्दोलन

 


सलीम रज़ा

कृषि सुधार बिल पर जिस तरह से देश के अन्दर घमासान हो रहा है कहीं ऐसा नहीं लगता कि किसान आन्दोलन राजनीतिक कुचक्र का शिकार होकर अपनी राह से भटक गया है।ये कहना कितना कष्टदायक है कि अराजनैतिक संगठनों के बीच राजनीतिक संगठनों के दलाल किसानों के चोले मे कैसे पहुंचे ? आखिर इनको किसने भेजा ?जिनके कारनामों से आन्दोलन की दशा और दिशा दोनो ही लहुलुहान हो गई। शांतिप्रिय तरीके से चल रहा किसान आन्दोलन एका एक हिंसक कैसे हो गया? ये गणतंत्र दिवस पर हुये शर्मनाक हिंसक हुये तथाकथित किसानों की हरकत से पता चला जिससे पूरे देश और दुनिया मे नकारात्मक संदेश चला गया। शुरूआती दौर में तो लग रहा था जब सरकार और किसान संगठनों के बीच कई दौर की वार्ता हुई कि शायद सरकार भी समाधान निकालने की जुगत मे है लेकिन अब हालात ऐसे बन चुके हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है कि अब ये मसला किसी भी सुलह की तरफ जाता नहीं दिखाई दे रहा है। इस बात में भी कोई संदेह नहीं रह गया कि धरने पर बैठे किसान संगठनों के बड़े नेताओं का उनके साथियों पर कोई कमांड हो क्योकि अभी दिल्ली की हिंसा को गुजरे कुछ ही दिन हुये कि सिंघु बार्डर पर पुलिस के साथ हिंसक वारदात इस बात की गवाही देती है। कहने का मतलब ये है कि अब भी दिल्ली के बार्डर पर हालात नासाज ही बने हुये हैं आलम ये है कि किसान आन्दोलन के जरिए राजीतिक दलों को भी अपनी मरी हुई सियासत को ज़िन्दा करने का अच्छा अवसर हाथ लगा और मौका भी है उन्हें अपनी सियासत चमकाने का। 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा के बाद दिल्ली बार्डर पर डेरा जमाये किसान नेताओं ने एकबार तो अपनी रावटियों और तम्बुओं को हटाना भी शुरू कर दिया था जिसे देखकर प्रशासनिक अमले नेे भी राहत की सांस ली कि अब रास्ता खुल ही जायेगा लेकिन सतताधारी दल और उनके नेताओं का ओवर रियेक्ट करना भारी पड़ गया क्योंकि उनकी जबरदस्ती उन्हीं पर भारी पड़ गई परिणाम ये निकला कि जो रावटी और तम्बू खुद किसान हटा रहे थे वो दुबारा लगाने लगे। आखिर सरकार को ये क्यों समझ में नहीं आ रहा कि किसान तो सिर्फ बार्डर पर ही धरने पर बैठा है लेकिन लाखों की तादाद में मध्यम वर्ग भी तो है जो किसानों का समर्थन कर रहा है? आखिर ये भी तो वो अंश है जो किसान के साथ है जिसे जोड़ा नहीं जा रहा है। दरअसल किसान बहुत ही भावुक होता है और उसके साथ जितनी भीड़ जुड़ती है उतना ही वो भावुक हो जाता है शायद सरकार ये समझ पाने में नाकाम रही है या समझना ही नहीं चाहती क्योंकि राकेश टिकैत का मीडिया के सामने गाजीपुर बार्डर पर अपने सम्बोधन में भावुक होकर रोना इस बात का संदेश देता है कि पहले से और ज्यादा किसान आन्दोलन सक्रिय हो गया,और सड़कें प्रदर्शनकारियों से फिर भर गईं। एक सवाल मेरे अन्तस में कौंध रहा है कि अन्ततः किसान आन्दोलन का अंत क्या है ? गौर करने लायक बात है  कि किसानों के लिए मध्यम वर्ग आक्सीजन का काम करती है और किसानों की हितकर भी है लिहाजा बातचीत ही इसका एकमात्र हल है। यहां एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा चाहूंगा या जरा पीछे जाना चाहता हूं क्योकि अब तक सरकार के प्रतिनिधि और किसान संगठनों के नेताओं के दरम्यान तकरीबन 11 बार गोल मेज वार्ता हो चुकीं हैं और सरकार इस बात पर भी सहमत दिखी कि बह डेढ़ साल तक इस कृषि कानून को लागू नहीं करेगी वहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी जिसमें किसानों के प्रतिनिधि भी होंगे वो इस कानून पर विचार करेगी फिर असहमति कैसी? ये बात तो सर्वविदित है कि कोई भी आन्दोलन होता है उसके पीछे सिर्फ मकसद ये होता है कि किसी भी तरह से सरकार पर दवाब बनाया जा सके और काफी हद तक इस आन्दोलन ने सरकार को दवाब में ला ही दिया कि वो कृषि कानून से दूरी बनाने को मजबूर हो गई है, लिहाजा किसान नेताओं को भी ये बात समझनी चाहिए कि वे भी सरकार की बात समझें लेकिन यहां एक बात का उल्लेख करना जरूरी है कि सरकार को एम.एस.पी मुद्दे पर विचार अवश्य करे हालांकि सरकार ने हाल फिलहाल इसे जारी रखने की बात कही है लेकिन सरकार को इस बारे में सोचना होगा कि इसकी गारंटी से उपभोक्ता और और खरीददार पर क्या प्रभाव पड़ेगा इस पर मंथन करने की जरूरत है और ये भी आंकलन होना चाहिए कि इससे जन-वितरण व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अब सवाल ये है कि एम.एस.पी में संशोधन हो या फिर नया कृषि कानून बने इसके लिए एक तयशुदा प्रक्रिया होती है लिहाजा जो उचित हो वही रास्ता चुनना चाहिए क्योंकि इस आन्दोलन से पडने वाले आर्थिक असर से भी सरकार परेशान तो अवश्य होगी। अन्दाजा ये भी लगाया जा रहा है कि किसानों के दिल्ली बार्डर पर जमा रहने और गोलबन्दी से सरकार को देश की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी है और रोजाना तकरीबन 3,500 करोड़ रूपये का घाटा हो रहा है जिसकी वजूहात है कर की वसूली न होना, माल की ढ़लाई में देरी,अद्यौगिक गतिविधियों का थम सा जाना और जी.एस.टी का एकत्र न होना वगैराह-वगैराह फिर इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि सरकार के ऊपर दोतरफा दवाब है जो देखा जा सकता है एक तो ये कि किस तरह से आन्दोलित किसानों को मनाया जाये दूसरी अपनी अर्थिकी को कैसे सुधारा जाये। वहीं दूसरी तरफ किसान नेता भी अतिरिक्त दवाब झेल ही रहे होंगे वो ये कि एक तो उनके ऊपर गणतंत्र दिवस पर हुये कारनामों का कलंक तो लग ही गया इसलिए वे आत्ममंथन करने को जरूर मजबूर हुये होगे कि जरूरत से ज्यादा भीड़ और अतिउत्साह अनुशासन की सीमा रेखा से बाहर ही होता है। बहरहाल कुछ दिनों से माहौल को गरम करने वाली बाते न के बराबर हैं अगर ऐसा ही पहले अनुशासित होकर किया गया होता तो गणतंत्र दिवस की गरिमा तार-तार न होती। अच्छा तो ये ही होगा कि वार्ता वहीं से शुरू हो जहां से छूट गई थी लेकिन दिक्कत ये नहीं है दिक्कत तो ये है कि सरकारें किसानों को अपना वोट बैंक समझती हैं जबकि किसान का मत प्रतिशत किसी एक ही पार्टी को नहीं जाता दलों में बंट जाता है क्योकि हर राज्य के किसानों की अपनी-अपनी समस्यायें हैं मुख्य बात ये है कि जब किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता तब ही वो उग्र होते हें और राजनीतिक दल इसी ताक में रहते हैं कि कैसे वो इस जलती आग में अपनी राजनीतिक रोटी सेकें लेकिन सरकार चाहे किसी भी दल की हो किसी की मंशा किसानों के प्रति साफ नजर नहीं आती इसीलिए वे इसका कोई ठोस समाधान नहीं निकालना चाहते वल्कि इसे मुद्दे के रूप में अपना राजनीतिक हथियार बनाकर रखते हैं जिससे वोट उनके पक्ष मे रहे। बहरहाल सरकार के साथ-साथ हमें भी इतना तो स्मरण होना ही चाहिए कि बीता साल महामारी की भेंट चढ़ गया फिर भी हम आज सुरक्षित हैं तो सिर्फ इस खेतिहर समाज किसान की बदौलत जिनके दम पर हमारे घरों में देर से ही भले चूल्हे तो जले दो जून न सही  एक वक्त का निबाला तो मिला लिहाजा सरकार को और किसानों दोनों एक कदम तुम भी चलो,एक कदम हम भी चलें’ वाली परिपाटी पर चलकर इस आन्दोलन को विराम देना होगा जो हमारे और देश दोनों के लिए हितकर रहेगा।

Sources:Saleem raza

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