फलती-फूलती सियासत, कुपोषित होता लोकतंत्र


सलीम रज़ा


शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इक्कीसवीं सदी की सियासत भी इस तरह से करवट लेगी जैसे जमीन पर करवटें बदलता हुआ कोई घोड़ा अपनी पाचन क्रिया को मजबूत बनाता है। सियासत के रंगों का धमाल और उनका कमाल तो देखो इसकी छटा से इन्द्रधनुष भी अपनी लाज बचाने की फिराक में है। इस चुनावी वायरस से ग्रसित आज हर किसी मंच पर सियासत के ये पैरोकार हालात और संख्या आधारित जगहों पर अपने जहर की फुसकार से पूरे देश के माहौल को जहरीला बनाने पर आमादा है ,हर किसी की जुबान फन बनकर रह गई है, सियासत के इन किंगों से घबराकर अब तो किंग कोबरा भी अपनी बाबी से बाहर आने को राजी ही नहीं है।


 


आज जब हमारा देश 78 हजार से ज्यादा कुपोषित लोगों का देश बन चुका है ऐसे में सियासत का अपहरण करके सत्ता को रखैल बनाने वाले ये कुपोषित मानसिकता के लोग लगता है जरूर ये कुपोषण का क्रीमीलेयर ही होंगें। देश के अन्दर हर पांच साल बाद चुनावी बरसात में कुकुरमुत्तों की तरह उग आने वाले इन लोगों से अब मशरूम की प्रजाति की पहचान भी खतरे में पड़ गई। लोकतंत्र इनकीें नजर में किसी दिव्यांग भिखारी से कम नहीं, जिनकी भूख को शांत करने के लिए ये अपने शातिर और वांचाल रिसर्च सेन्टर में तैयार किया हुआ आश्वासन का चूरन तैयार करके मुफत में बांटने से भी नहीं हिचकत,े इसका असर ऐसा कि जिन्हें खाकर लोकतंत्र को मजबूत बनाने की लड़ाई लड़ने वाले पांच साल तक शून्य में जीवन बिताने लगते हैं।


 


वैसे भी लोकतंत्र की हत्या करने वालेे इन सत्ता के दलालों के लिए देश के संविधान में पूरी छूट है। कुतर्कों की खान में खनन करके ये इतने काले हो चुके हैं कि सदियों से चला आ रहा मुहावरा ‘‘कोयले की दलाली में हाथ काले’’ मारे ग्लानि के सुसाईड करने पर आमादा है। बहरहाल, अहंकार की थाली में लोकतंत्र की चपाती, जज्बातों की सब्जी, आशाओं की चटनी, ममता के अचार के साथ ये सत्ता के दलाल उनकी अस्मिता के निबाले बनाकर शान के साथ खा और पचा रहे हैं। किस्मत तो इनकी जेब में सांसें लेती है, खुशहाली का वरदान इन्हें विरासत में मिला है और भाग्य इनका गुलाम ही है हां इतना जरूर है कि इन दलालों के पास इतनी सारी ताकतों से घबराकर दरिद्र नारायण ने समूचे लोकतंत्र पर अपना आधिपत्य जरूर जमा लिया है।


 


मेक-इन और डिजिटल इन्डिया के कोरे ख्वाब से डरे सहमें दरिद्र नारायण ने अब सियासत के पैरोकारों की चरण वन्दना का ठेका जरूर ले लिया है और किसी अमरबेल की तरह लोकतंत्र के हर घर की छत पर पसरे हुये हैं। इनके बाहुपाश में सिमटकर खुशहाली, उम्मीदें अपनी पहचान खो चुकी हैं, और आज मेक इन इन्डिया का हर युवा रोजगार के लिए अपलक निहारती आंखों के नीचे बन आये डार्क सर्कल की वजह से अपने माथे पर समय पूर्व प्रौढ़ होने का लेबल चस्पा करवा चुका है। ऐसे में तो ये ही कहा जा सकता है कि फलती-फूलती सियासत और कुपोषित होता लोकतंत्र इन कुपोषित सियासत पैरोकारों की ही देन है।


टिप्पणियाँ