महिलाओं के प्रति नज़रिया बदलें पुरूष

 



 


 


सलीम रज़ा


'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता' मनुस्मृति के ग्रंथ  के श्लोक में नारी सम्मान को बताया गया है ,भले ही मनुस्मृति को विवादों के दायरे में रखा गया हो लेकिन हिन्दू समाज के बहुत सारे नियम कानून इस पर आधारित हैं। खैर जहां नारी की बात हो वहां सभी धर्मों को नारी सम्मान की बात करनी चाहिए । मैं किसी बात का अपवाद बनना नहीं चाहता लेकिन सत्य को किसी भी कीमत पर झुठलाया भी नहीं जा सकता क्योंकि सत्य सदैव कड़वा होता है ?।  इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि इंसानी जीवन के विकास के लिए नारी की जवाबदेही तय है। इस नजरिये से देखा जाये तो इंसान को मुकम्मल और उसके अस्तित्व को बनाये रखना नारी की जिम्मेदारी है तो इस लिहाज से नारी ही सवोैच्च रही है। भले ही नारी पराधीन क्यों न हो लेकिन जिस तरह से मानव के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जितना पुरूष उत्तरदायी है उतना ही नारी का योगदान है, ऐसे में नारी और पुरूष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हुये। मैं इतना विस्तार से क्यों कह रहा हूं ? क्या इसकी इजाजत है? कहीं ऐसा न हो इसको लेकर बहस और विवाद के दरवाजे खुल जायें ? धर्म वो है जिससे संस्कार,रस्मो.रिवाज बाहर निकलकर आते हैं जिसका अनुसरण और उसका पालन करना हर धर्म के व्यक्ति को अनिवार्य होता है।


 


अब जब धर्म के अनुसार इंसान चलता है तो जाहिर सी बात है कि वो धर्म के प्रति समर्पण भाव रखता है और ये अतिवृद्धि उसे अंधविश्वास और अंधश्रद्धा की तरफ ले चलती है फिर चाहे उसे अपना इस्तित्व भी कुर्बान क्यों न करना पड़े, फिर ये बात सच ही हुई कि इंसान धर्म की आड़ लेकर निरंकुश, और बर्बरता का माहौल लेकर उतर जाता है। सबसे बड़ी बात है कि धर्म को जानिए धर्म  का ताल्लुक ही कर्म से है । धर्म एक दार्शनिक सोच नहीं है, वल्कि एक निश्चित विधान है, धर्म के लिए आप अपने हिसाब से परिभाषा नहीं दे सकते क्योंकि धर्म को परिभाषा में बिल्कुल भी बांधा नहीं जा सकता।  धर्म को  बहस और वाद विवाद का मुद्दा बना लेने से उसके वास्तविक स्वरूप को न तो समझा जा सकता है और न जाना जा सकता है। हर धर्म में नारी की समानता की बात भले ही करी जाती हो लेकिन जहां स्त्रियों के प्रति रूख की बात आती है वहां पर समानता की बात उपेक्षा का दंश झेलती है। ऐसा नहीं लगता कि धर्म को अपने- अपने हिसाब से परिभाषित करके नारी को उपभोग का सामान बनाकर रख दिया है जिसके चलते नारी के विकास की बात करना सिर्फ धर्म ग्रंथों के पन्नों तक सिमट कर रह गई है।


 


आज नारी की जो दशा है वो मनु स्मृति के श्लोक से बिल्कुल उलट है जिसमें कहा गया है कि नारी को सम्मान मिलना चाहिए जिस घर मे नारी को सम्मान और उनकी अपेक्षानुरूप पूर्ति की जाती है उस घर पर देवताओं की कृपा बरसती है। लेकिन आज जो हालात नारी की है उसे देखकर ये ही लगता है कि इंसान के संस्कारों में नारी के सम्मान के लिए सिर्फ और सिर्फ दिखावा है, लेकिन मनन करने की इच्छा शक्ति पुरूष की कमजोर ही है। घटता लिंगानुपात इस बात का द्योतक है कि नारी के प्रति पुरूष की सोंच कितनी मजबूत है ?। क्या ये बात हलक से नीचे उतरती है कि आज के कमप्यूटर,विज्ञान,प्राद्यौगिकी के युग में भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को तरजीह देने का काम भी पुरूष की मर्जी के खिलाफ नहीं हो सकता नारी की कहानी और सम्मान के लिए ये एक काला धब्बा है। अगर आज भी नारी को वो सम्मान और अधिकार नहीं दिये जाते तो ये पुरूषों की मानसिक कुंठा और अपने आपको प्रधान कहे जाने की झूठी पहचान को ढोना मात्र है। आजकल महिलाओं के साथ दुराचार,बलात्कार,हत्या जैसे जधन्य अपराधों की बाढ़ सी आ गई हे जिसे देखकर लगता है कि सशक्त पुरूष अपनी काम पिपासा में अपने धर्म और संस्कारों की तिलांजली दे रहा है। ये सच है कि आज पुरूष ने महिला को मात्र अपने उपभोग का साधन और संतान पैदा करने की मशीन तक ही सीमित रखा है।


 


 आज के माहौल में पुरूषों के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महिलाओं की मर्यादा को तार-.तार करने वाले विधान और संस्कार को ही महिलाऐं अपना धर्म समझने लगीं इस अज्ञानता के लिए भी पुरूष ही दोषी हैं। कितना भी समाज का माहौल बदले लेकिन महिलाओं के हालात जस के तस है आज भी महिलायें पुरूषों के अत्याचार ओर जुल्म का कोपभाजन बन रही है महिलाओं को यदि अपनी आजादी और अपने सम्मान को बचाना है तो उसे धर्म के बन्धन से निकलकर बाहर आना होगा। महिलाऐं अपने ऊपर हो रहे भेदभाव पूर्ण रवैये, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार और उन्हें रीति -रिवाजों संस्कारों की बेड़ी में बांधकर रखने से उसके अन्दर क्रोध पैदा होना लाजमी है लेकिन उनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी ने उन्हें असहाय बना दिया जिसकी वजह से वो ये सब सहन करने को मजबूर है। अब तो महिलाओं के बारे में स्थिती साफ होती जा रही है कि महिलाओं की आजादी,समानता और पहचान को प्रशस्त बनाने के रास्ते में धर्म बीच में आ ही जाता है। महिलाओं को सम्मान मंचों या कोरे भाषणों से नही दिलाया जा सकता वल्कि हमें अपनी सोंच में बदलाव लाना पड़ेगा और ये दिखाना होगा कि समानता के लिए  महिलाओं को गुलामी और उनके ऊपर अधिकार जमाने वाली सोंच को खत्म किया जाये ।


 


क्या आज भी ये स्मरण दिलाना होगा कि मानव ने पाषाण युग से लेकर महामानव बनने तक का सफर पूरा कर लिया है, और इस लम्बे सफर में कई सभ्यताओं का जन्म भी हुआ है ऐसे में भारतीय सभ्यता ही एक ऐसी सभयता है जिसके अन्दर एक आला दर्जे की पारवारिक और सामाजिक व्यवस्था थी। आज के इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में महिलाओं नें खेती किसानी से लेकर अंतरिक्ष तक अनकों क्षेत्रों में पुरूषों के बराबर मुकाम हासिल किया है, लेकिन ये अत्यन्त सोंच का विषय है कि आज के दौर में महिलाऐं अपने मौलिक अधिकारों से महरूम हैं। ये दुर्भाग्य की बात नही ंतो और क्या है कि पुरूषा आज भी ,शौर्य,संघर्ष और अहंकार से परिपूर्ण है और महिला आज भी बेचारगी का लिबास ओढ़े हुये है। आजकल का दौर सोशल मीडिया का है जहां पर अल्पज्ञान लोगों का जमावड़ा है आलोचना करना ही इनका मुख्य काम है, लेकिन मैं तो ये ही कहूंगा कि महिला सशक्तिकरण के जितने भी फार्मूले इजाद किये जा रहे हैं उसके वावजूद महिला को सबसे बड़ी चुनौती अपने घर से ही मिल रही है । मां की कोख में पल रही है तो जन्म होने तक संघर्ष और चुनौती यदि पैदा हो भी गई तो सडकों पर हर कदम चुनौतियों का उसके सामने पहाड़ खड़ा हुआ है। क्या संवेदनशीलता तब जागती है जब किसी बड़ी घटना के बाद हम अपना कलेजा कूटकूट कर सड़कों पर उतरकर अपना विरोध प्रकट करते हैं , लेकिन कभी घरेलू हिंसा,भू्रण हत्या,लैंगिक भेदभाव,दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न,छेड़छाड़,दमन, बलात्कार, तिरस्कार, जैसी कुप्रथाओं को सामूहिक तौर से समाप्त करने के लिए आगे क्यों नहीं आते? जिसे अकेली महिला फेस करती है। अब तो हालात बद से बददतर हो गये अबोध बच्चियां भी इन पैशाचिक प्रवृति के दरिंदों से महफूज नहीं है । पुलिस अभिरक्षा में भी महिलाओं के बलात्कार करने के मामले सामने आने लगे विधायक सांसद भी ऐसे संगीन आरोपों के घेरे में बंघते जा रहे हैं अगर ये कहा जाये कि सरकार की योजनायें,पुलिस,अदालत और कानून की धारायें सिर्फ और सिर्फ सामाजिक संरचना में शाामिल औपचाररिक व्यवस्थायें हैं तो शायद गलत नहीं होगा।


 


बहरहाल ये सारी व्यवस्थायें उस दिन कारगर होंगी जिस दिन लोग समाज के अन्दर महिलओं के प्रति अपनी सोंच और अपने दृष्टिकोण में बदलाव लायेंगे। यदि समाज की किसी बेटी को देखकर हमारे अन्दर अपनी बेटी और बहन के भाव आ जाये ंतो यकीनन महिलायें सम्मान के साथ सिर उठाकर चल सकेगी।  हम किसी की बेटी को पुरूष की सार्थकता महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान देने में है, न कि उनका शोषण करना । इस बात में संदेह नहीं है कि लोग उस मंत्र को भूल गये जिसमें कहा गया है कि '' यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता' नारी का सम्मान है जहां,संस्कृति का उत्थान है। इसलिए यें चिन्तन करने का विषय है कि अगर नारी शक्ति को नुकसान पहुचाया जायेगा तो धीरे-धीरे समाज ही शक्तिहीन हो जायेगा, ऐसे में पुरूषों की जिम्मेदारी बनती है कि इस पर हमें और भी ज्यादा संवेदनशील हो जायें तभी तहिला का सम्मान और उत्थान संभव हैे।


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