क्या बन्दूक की गोली से न्याय संभव है ? 

 


 




सलीम रज़ा
अभी हाल ही में हैदराबाद की पशु चिकित्सक डा0 प्रियंका रेड्डी को कुछ स्थानीय दरिन्दों ने पहले अपनी हवस का शिकार बनाया फिर उनको जिन्दा जलाकर मार दिया। सच में ये एक बहशीपन के बेहद घृणित स्तर की मानसिकता का परिचय था। इस जघन्य घटना के बाद सच मानिए उन लोगों के दिलों में खौफ बैठ गया जिनके आंगन में लड़की होगी ,वे जरूर अनजानी आंशंका से घिर गये होंगे। वैसे हैदराबाद जैसी घटना नई नहीं है ऐसी घटनायें तो देश में रोजाना दर्जनों के हिसाब से होती हैं लेकिन कुछ ही घटनाओं को सुखिर्यां मिलती हैं वैसे ही हैदराबाद पुलिस ने डा0 प्रियंका रेड्डी के चारो बलात्कारियों का एनकाउन्टर करा उससे कम से कम उस परिवार को राहत तो मिली होगी जिन्हों अपनी बेटी की तड़प को महसूस किया होगा, लेकिन इसके बाद एक ऐसा सवाल देश के अन्दर उठ गया जिसने बहस का मुद्दा बना दिया सवाल ये है कि क्या गोली के दम पर बलात्कार की घटनाओं को कम किया जा सकता है ? क्या भय दिखाकर अपराध को कम किया जा सकता है ? मेरे ख्याल से ये असंभव सा काम है जिसका निदान कम से कम इस तरह तो नहीं हो सकता। जैसा कि मैं देख रहा हूं लोगों ने हैदराबाद की पुलिस के इस कारनामें को अपराध करने वाले अपराधियों के लिए उठाया गया सही कदम बताया है लेकिन इसीके गर्भ से एक नया सवाल जन्म ले रहा है कि क्या उप महाद्वीप में गणतंत्र नाम की चीज नेपथ्य की तरफ जा रही है। 


न्याय गोली से नहीं हुआ करता वल्कि न्याय कानून और संविधान के जरिए ही होना चाहिए। आपको ऐसा नहीं लगता कि आप कानून और संविधान को जबरदस्ती हाशिये पर धकेलकर आने वाले कल में किसी और को अपना फैसला देने और सजा देने के प्राविधान पर अपनी मुहर लगा रहे हैं। इस वक्त ऐसे मामलों में देश के हर व्यक्ति के अन्दर उबाल है जिसे देखों उसके उदगार ये ही हैं कि ऐसे जघन्य अपराध करने वालों को सरे बाजार चैराहे पर लाकर सबके सामने फांसी दे देनी चाहिए।  फिर एक सवाल खड़ा हो गया कि क्या हिन्दुस्तान की आवाम ने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया कि हिन्दुस्तान की शासन- वयवस्था में बदलाव आना असंभव ही नहीं नामुमकिन भी है। आप जरा अपने क्रोध पर नियंत्रण रखकर ठंडे दिल से सोंचिए कि अगर ऐसा संभव हुआ तो हर किसी को कानून से ऊपर उठकर फैसले लेने का अधिकार प्राप्त होगा ऐसे में समाज का चेहरा और चरित्र कैसा होगा इसकी कभी कल्पना करी है ?। आप जघन्य अपराध से हटकर जरा इस व्यवस्था को देखिये जिसे आप अपनी सहमति बना रहे हैं हम न जाने कितने मामले देखते हैं जहां एक छोटी रकम देकर झुठे कागजों के जरिए किसी की सम्पत्ति हड़प कर उस परिवार को सड़क पर ला दिया जाता है,ं आखिर आक्रोश अैर उबाल तो उनके अन्दर भी होता है। दरअसल अपराध भी कई श्रेणी के होते हैं लेकिन समाज को द्रवित तो करते ही हैं। 


अब देखिये हमारे देश में वर्ण व्यवस्था पर आधारित जुल्मों का इतिहास कुछ लम्बा ही होता जा रहा है, आज भी दलित सवर्णों के जुल्म का शिकार हो रहे है चाहे दूल्हा बनकर घोड़ी चढ़ने का मामला हो, मंदिर में प्रवेश करने का मामला हो या फिर किसी दलित द्वारा मूंछों पर ताव देने पर जबरन मूूछ कटबाये जाने का हो जब आवाम ही खुद फैसला करने का मन बना रही है तो फिर मानव अधिकार आयोग, बाल संरक्षण आयोग, महिला संरक्षण आयोग, अल्पसंख्यक आयोग सरीखी संस्था बनाकर धन लुटा रहे हो फिर तो ये हाशिये पर पहुंच चुके हैं सिर्फ नाम के ही है। सवाल ये भी है कि इन मामलों में इनका कोई रोल है तो फिर मानव अधिकारों का उल्लघन तो हो ही रहा है। दुःख का विषय है कि निर्भया केस के बाद कठुवा की आसिफा और उन्नाव और अब हैदराबाद और फिर उन्नाव मामलों पर लोगों के दिलों में उबाल है जिसके लिए विरोध स्वरूप जगह -जगह लोगों का प्रदर्शन देखने को मिल रहा है लेकिन समाज के लोगों की अवधारणा किस घुरी पर अटकी है जहां आसासराम बापू,, बाबा राम रहीम सरीखे बड़े संत महात्माओं ने जिन्होंने शोषण उत्पीड़न की पराकाष्ठा को पार कर दिया लेकिन उनके समर्थन में जगह-जगह दंगे और भीड़ प्रदर्शन हो रहे हैं। उनका आक्रोश इसी पुलिस ने झेला फिर क्यों इनके प्रति लचर रवैया अपनाया गया कहीं इसके पीछे धर्म का कवच तो नहीं था? जिस बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न का मामला था वो भी तो आपकी बहन बेटी ही होगी फिर माफी क्यों? केस का ट्रायल क्यों? क्या आप खुद बलात्कार को धर्म और जाति को आधार मानकर उसकी अनुमति देने का प्रयास करते हैं? जरा बलात्कार के आकड़ों पर नज़र दौड़ायें तो 2017 तक देश में बलात्कार के तैंतीस हजार से ज्यादा मामले सामने आये थे जिसमें ं दस हजार से ज्यादा मामले नाबालिग बच्चियों के साथ दुष्कर्मों के थे ऐसा नहीं लगता कि ये आंकड़े हमारे समाज को नंगा करने के लिए काफी नहीं हैं।


 ये बात और भी चैंकाने वाली है कि भारत में सबसे ज्यादा बलात्कार परिवार के ही संबधितों द्वारा किये जाते है,ं इन मामलों में मघ्यप्रदेश ने मेरिट बनाई हुई है मध्य प्रदेश में 2017 के प्राप्त आंकड़ों में 6 हजार बलात्कार के मामले आये जिनमें पांच हजार से ज्यादा बलात्कार परिवार के ही लोगों द्वारा किये गये उसके बाद सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में चार हजार से ज्यादा बलात्कार के मामले आये जिसमें से तीन हजार से ज्यादा बलत्कारी परिवार से ही संबध रखते थे। ऐसे में महाराष्ट्र, राजस्थान समेत कई प्रदेशों में अपने परिचितों द्वारा ही बलात्कार करना पाया गया था । इससे तो स्थिति साफ हो जाती है कि बलात्कार दूसरे समुदाय द्वारा नहीं किये जाते ऐसे में जब इस तरह के भावनात्मक प्रदर्शन करे जाते हैं तो लगता है कि कहीं न कहीं आप अपना अपराध छिपाने की कोशिश तो नहीं का रहे हैं? जब देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा प्रोटेस्ट करता है तो ये लगता है कि इनमें शामिल कोई भीे अपराधी नहीं हैं लेकिन बढ़ती बलात्कार की घटनाये पोल खोल देती हैं कि कहीं हम अपना बर्बर मर्दवादी चरित्र पर संवेदनशील मास्क तो ओढ़ने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। कितना दुःखद है कि आप बलात्कार जैसे मामले को सिर्फ घटना मात्र समझते हैं जबकि बलात्कार एक मुसलसल चलने वाली जातिवादी लैंगिक और धन को पूजने वाली संस्कृतिक प्रक्रिया है जो सत्ता और शक्ति के भाव से संचालित करने में अपना योगदान देती है। आज के दौर में समाज ये ही चाहता है कि बलात्कारी को फौरन मृत्युदंड दिया जाना चाहिए मेरा अपना मानना है कि जब मृत्युदड या एनकाडन्टर जैसी बाते सिद्धान्त के रूप में बना ली जाये तो कहीं उसी का परिणाम तो नहीं कि बच्ची या महिला के साथ उत्पीड़न करके  और उसे मार कर सबूत मिटा देने की नाकाम कोशिशें भी इसी का अंजाम हों । 


अपराधी को मालूम है कि इस अपराध की सज़ा मृत्युदंड है और वो बच जायेंगे लेकिन न्याय तो अधूरा रह गया जब परिचितों के द्वारा बलात्कार के मामले सामने आये है हो सकता है मृत्युदंड के कानून के बनने से वो रिपोर्ट ही न दर्ज करायें । सवालों को भटकाने का प्रयास नहीं होना चाहिए सच बात तो ये है कि जब आपकी जांच प्रणाली में सामान्य सज़ा के होते ही पुलिस मामले साबित नहीं होने देती तो फिर मृत्युदंड के मामले में क्या सीन होगा?। क्या इस बात की उम्मीद है कि सही जांच होगी?। असल में जब जांच व्यवस्था ही बैन्टीलेटर पर हो तो क्या फर्क पड़ता है कि मृत्युदंड हो या 10 साल की सज़ा क्या असर पड़ता है?। जैसा की देश में चारों ओर हैदराबाद पुलिस का गुणगान किया जा रहा है उनके कदम को सही बताया जा रहा है तो फिर उत्तर प्रदेश में क्यो नहीं पुलिस बलात्कारियों के खिलाफ ये नुस्खा इस्तेमाल कर रही है। आप एनकाउन्टर से इसलिए खुश नहीं हैं कि बलात्कारी मारे गये वल्कि आप सभ्य समाज में खैफ पैदा करने का काम कर रहे हैं । मैं तो ये ही बात कहना चाहूंगा कि आप मूल प्रश्नों को अपने हाथों से छिटका कर उस अंजाम को जन्म देते हैं जो अपराध की दुनिया को जन्म देती है, सही मायनों में आप इतना दुःखी हैं तो आपके जन प्रतिनिधि संसद में क्यों नहीं सवाल उठाते कि उनकी पुलिस और न्याय व्यवस्था क्या काम कर रही है ? वो ये सवाल न खुद न जन भावनाओं को ध्यान में रखकर पूछ सकते क्योंकि तस्वीर बड़ी भयावह है । इसका प्रमाण उन्नाव कांण्ड की रेप पीड़िता है जिसके पूरे परिवार को खत्म कर दिया जाता है तो दूसरे मामले में रेप के आरोपियों को जमानत मिलती है तो वह पीड़िती को चाकू से हमला करके जलाकर मार देते हैं।  


हमारे देश में 100 में से 50 बच्चे बचपन में लैंगिक शोषण के शिकार हो जाते हैं उन्हें जब संरक्षण और सलाह नहीं मिलती तो आगे चलकर वे अपनी अलग अपराध की दुनिया बना लेते हैं । सही मायनों में आप खुद अपने बच्चों के संरक्षण और उन्हें इंसान बनाने का माद्दा नहीं रखते इसीलिए आप एनकाउन्टर जैसे सुपर हीरों के कारनामों पर ताली बजा रहे हैं। आपके अन्दर साहस है तो आप मर्दवादी समाज को मानव समाज में बदलने की कोशिश क्यों नहीं करते ? इसीलिए आप खूनी न्याय का इस्कबाल कर रहे है। ं अगर सही में हमें कुछ बदलना है तो अपने आपको जातिवाद और संप्रदायिकता के चोले से बाहर आना होगा , उनके मंुह को अपनी नाकामी के हाथ से बन्द नहीं करना होगा उनके सच को रोकने का प्रयास मत करिये । अगर उनके साथ उत्पीड़न हुआ है और आप उन्हें चुप कराते हैं या स्वयं चुप रहते हैं तो याद रखिये ये दिन आप के साथ भी घटित हो सकता है , ये एक नियम है ये सिर्फ एक मिथक है कि इसे गोली या फांसी से दूर किया जा सकता है। 


 


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