“एक नया भारत”: जब अल्पसंख्यक छात्र बदल रहे हैं शैक्षिक परिदृश्य
भारत में मुस्लिम छात्र, विशेषकर पेशेवर क्षेत्रों में, अब शिक्षा के क्षेत्र में नया मुकाम स्थापित कर रहे हैं। ये छात्र केवल पारंपरिक या ग्रामीण मदरसों से नहीं, बल्कि आधुनिक शहरी कोचिंग संस्थानों से भी उभर कर आ रहे हैं। वे उन सामाजिक और शैक्षणिक रूढ़ियों को चुनौती दे रहे हैं जो लंबे समय से उनके समुदाय से जुड़ी रही हैं।
इनकी सफलता का रहस्य उनके व्यक्तिगत दृढ़ संकल्प, समुदाय का मजबूत सहयोग और सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने की जिजीविषा में छिपा है। हाल ही में आयोजित NEET-UG परीक्षा में गुवाहाटी के मूसा कलीम ने 99.97 पर्सेंटाइल के साथ असम में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। इसी तरह, मुंबई की आमना आरिफ कादरीवाला, जो उर्दू माध्यम से हैं और आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आती हैं, ने भी उत्कृष्ट अंक प्राप्त किए।
नागपुर की मुबाशारा अंजुम ने मदरसे और परंपरागत विद्यालय दोनों से शिक्षा प्राप्त करते हुए 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। महाराष्ट्र की एचएससी परीक्षा में अरीबा उमर हंगोरा और मोमिन मोअज़ ने भी शानदार प्रदर्शन किया। ये उपलब्धियाँ मुस्लिम छात्रों की बढ़ती भागीदारी और परिश्रम का प्रमाण हैं।
भारत की पहली मुस्लिम महिला न्यूरोसर्जन डॉ. मरियम अफ़ीफ़ा अंसारी इस बात की मिसाल हैं कि मुस्लिम महिलाएं अब उच्च और चुनौतीपूर्ण पेशों में भी अपनी जगह बना रही हैं। पूर्वोत्तर भारत के मूसा कलीम जैसे युवाओं ने शिक्षा के क्षेत्र में नई प्रेरणा दी है, जिससे नीतिगत स्तर पर समावेशी शिक्षा की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इन छात्रों की कहानियाँ यह साबित करती हैं कि भाषा, धर्म और सामाजिक स्थिति जैसी बाधाएँ अब शिक्षा के रास्ते में रुकावट नहीं रहीं। ये उदाहरण उस सोच को खारिज करते हैं कि मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा से दूर है। यह बदलाव सरकारी योजनाओं, छात्रवृत्तियों और आरक्षण नीतियों की वजह से भी संभव हुआ है।
वर्ष 2016 से 2021 के बीच केंद्र सरकार द्वारा मुस्लिम छात्रों को 9,904 करोड़ रुपये की 2.3 करोड़ से अधिक छात्रवृत्तियाँ दी गईं। शिक्षा के क्षेत्र में सरकार, एनजीओ और धार्मिक संस्थाओं के बीच सहयोग से शिक्षा की पहुँच और गुणवत्ता में सुधार हुआ है। इससे छात्रों में उच्चतर शिक्षा के प्रति रुचि और आकांक्षाएँ बढ़ी हैं।
हालांकि कई क्षेत्रों में असमानताएँ अभी भी बनी हुई हैं। उदाहरण के तौर पर 2022 में UPSC में सफल मुस्लिम उम्मीदवारों की हिस्सेदारी केवल 2.9% रही, जबकि उच्च शिक्षा में भी मुस्लिम छात्रों की भागीदारी 4.6% के आसपास है। इसके बावजूद, पिछले तीन वर्षों में 30% की वृद्धि यह दर्शाती है कि स्थितियाँ बदल रही हैं।
अमीना, मूसा, मुबाशरा और अन्य छात्र-छात्राओं की सफलता एक नए शैक्षिक और सामाजिक माहौल की ओर संकेत कर रही है। ये कहानियाँ प्रेरणा देती हैं कि भारत का भविष्य तभी सुरक्षित और उज्ज्वल हो सकता है जब हर समुदाय के हर बच्चे को समान अवसर मिले और वे अपनी प्रतिभा को पूरी तरह से उभार सकें।
यह रिपोर्ट भारत के उस बदलते सामाजिक परिदृश्य को उजागर करती है जहाँ मुस्लिम छात्र-छात्राएँ शिक्षा के माध्यम से अपनी पहचान मजबूत कर रहे हैं। उनके प्रयास न केवल समुदाय के भीतर प्रेरणा का स्रोत हैं, बल्कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति और समावेशी विकास के लिए भी मार्गदर्शक हैं।
ऐसे उदाहरण यह सिखाते हैं कि समाज की वास्तविक तरक्की तब होती है जब विविधता को अवसर में बदला जाए और हर वर्ग को बराबरी से फलने-फूलने दिया जाए। हमें इन उपलब्धियों को एक आंदोलन की तरह देखना चाहिए, जो सामाजिक न्याय और शैक्षिक समानता की ओर देश को ले जा रहा है।
— संपादक
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