लेख: "प्रेम" : शब्दों से परे एक अनुभूति

 


(शिवम यादव 'अंतापुरिया')

प्रेम — यह शब्द जितना छोटा, उतना ही विराट। यह जीवन के प्रत्येक पहलू में समाया हुआ ऐसा भाव है, जिसे देखा नहीं जा सकता, पर महसूस किया जा सकता है। प्रेम कोई भौतिक क्रिया नहीं, यह आत्मा का एक आंतरिक आंदोलन है। यह वह कंपन है, जो दो हृदयों को जोड़ता है, दो विचारों को संतुलित करता है और दो आत्माओं को एक लय में लाता है। प्रेम किसी भाषा, धर्म या जाति का मोहताज नहीं होता। यह तो उस मौन की तरह है, जिसमें समस्त ब्रह्मांड की गूंज छुपी होती है।

कई बार लोग प्रेम को केवल रोमांटिक संदर्भों में देखते हैं — लेकिन वह उसकी सबसे सतही परत होती है। प्रेम माँ की ममता में होता है, एक पिता के त्याग में, एक शिक्षक के धैर्य में, एक सच्चे मित्र की निःस्वार्थता में, और यहाँ तक कि एक अजनबी की मुस्कान में भी प्रेम की झलक मिल सकती है। प्रेम का वास्तविक रूप उन भावों में है, जहाँ कोई अपेक्षा नहीं, बस स्वीकार है। वह स्वीकार जहाँ सामने वाला जैसा है, वैसा ही संपूर्ण और पूर्ण प्रतीत होता है।

प्रेम की सबसे बड़ी विशेषता है उसका अदृश्य रहना, और फिर भी सबसे प्रभावशाली होना। यह वह शक्ति है, जो एक अराजक मन को भी शांति का स्पर्श दे सकती है। यह वह दीपक है जो अंधकारमय जीवन में भी प्रकाश का आभास कराता है। प्रेम कोई कार्य नहीं, यह जीवन की स्थितियों में से एक है, जिसमें मनुष्य सबसे अधिक मानवीय होता है।

प्रेम में जब व्यक्ति स्वयं को भुला देता है, और दूसरे के सुख में ही अपना सुख खोज लेता है — वही उसकी सबसे उच्च अवस्था होती है। तब वह केवल संबंध नहीं होता, वह एक साधना बन जाता है। मीरा, राधा, सूफी संत, तुलसी, कबीर — इन सबकी साधना प्रेम ही थी। उन्होंने प्रेम को ईश्वर का पर्याय माना, और उसी में अपनी मुक्ति देखी।

यह भाव केवल तब उत्पन्न होता है जब अहं पिघलता है। जब 'मैं' का अस्तित्व क्षीण होता है और 'तुम' ही जीवन की धुरी बन जाते हो। प्रेम का अर्थ यह नहीं कि हम दूसरे को बदलना चाहें — प्रेम तो यह है कि हम उन्हें उस रूप में अपनाएँ जैसे वे हैं। उनके दोष भी प्रेम की दृष्टि में गुण बन जाते हैं, और उनकी चुप्पी भी एक गहन संवाद बन जाती है।

प्रेम कोई समझौता नहीं होता, न ही यह कोई अनुबंध है। यह वह यात्रा है जो अंत नहीं चाहती, और न ही कोई मंज़िल। वह तो बस चलते रहना चाहती है — कभी साथ में, कभी यादों में, कभी स्मृतियों की मद्धम रौशनी में। यह वह अस्तित्व है जो मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है — किसी कविता में, किसी पुराने खत में, किसी सूखे फूल की खुशबू में।

विरह में प्रेम और अधिक स्पष्ट हो जाता है। जब प्रिय पास नहीं होता, तब प्रेम अपनी संपूर्णता में प्रकट होता है। वह प्रत्येक सांस में महसूस होता है, और प्रत्येक धड़कन में उसकी गूंज होती है। विरह कोई अंत नहीं, वह प्रेम की गहराई का प्रमाण है। क्योंकि प्रेम वह नहीं जो साथ में रहकर जिया जाए, वह तो वह है जो दूर होकर भी कम न हो।

प्रेम, अंततः वह सत्य है जिसे हर आत्मा खोज रही है — अपने रिश्तों में, अपने संघर्षों में, अपने मौन में। और जब वह प्रेम मिल जाता है — चाहे वह किसी व्यक्ति के रूप में हो या किसी अनुभव के रूप में — तो जीवन को अर्थ मिल जाता है। वह अर्थ जो न केवल जीने की वजह देता है, बल्कि जीने का ढंग भी सिखाता है।

प्रेम एक साधारण अनुभव नहीं, यह एक आध्यात्मिक यात्रा है। और यह यात्रा उस क्षण शुरू होती है जब हम 'प्रेम पाना' छोड़कर 'प्रेम बनना' सीख जाते हैं। यही वह क्षण है जब प्रेम केवल एक संबंध नहीं, बल्कि स्वयं ईश्वर का अनुभव बन जाता है।

और तब जीवन एक प्रार्थना बन जाता है — मौन, गहरा और अनंत प्रेम से परिपूर्ण।

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