लघु कथा - बाल वेदना

 


 प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"


लघु कथा - बाल वेदना



 सभा में कुतर्क श्रृंगार कर रहे थे। धनिकों के अहम ज्ञान पर,वारों-पर-वार कर रहे थे। दिखावा क्रमिक रुप से नव आडंबर ओढ़ रहा था। उस कुशाग्र बुद्धि बालक की बात बस इसलिए नहीं सुनी जा रही थी क्योंकि अल्पायु का अहम सबके आडे़ आ रहा था। जब भी वह कुछ बोलने की कोशिश करता तो उसे बीच में ही रोक दिया जाता था। बस इसलिए क्योंकि वह गरीब था,कपड़े फटे-पुराने थे। उसके हाथों में बस एक पुरानी किताब थी जो उसकी एकमात्र संगी थी और शायद अब उसे किसी और संग की आवश्यकता भी नहीं थी। बैठक में सभी को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया था परंतु वह मौन खड़ा हुआ था और प्रतिकारवश वहाँ से चले जाने के लिए सनद्ध (तैयार) था। उसकी लाल सुर्ख़ आंखों से उसके अंतस (हृदय) में चल रहे महायुद्ध की रज मुझ तक निर्बाध उड़कर आ रही थी। वह मौन खड़ा था और मेरी स्मृति में बालबुद्ध के प्रति विचार कौंध रहे थे कि जहाँ 'दर्शन' सर्वोपरि होना था आज उसका स्थान 'प्रदर्शन' ने ले लिया है और शास्त्रार्थ से 'शास्त्र' को हटाकर केवल 'अर्थ'(धन) को महत्व दिया जा रहा है। धीरे-धीरे वह बालक हाथ में पुस्तक लिए घर की ओर प्रस्थान कर रहा है और उसकी पीठ पर पड़ती हुई सूर्य-किरणें उसे अक्षय आशीर्वाद दे रही है।



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