कविता-हाई-वे के ढाबों सी


आशीष तिवारी निर्मल 


 


कुछ टूटे,कुछ छूटे ,ख्वाबों सी, 

जिंदगी अपनी हाई-वे के ढाबों सी!

 

अब तो वही बुलंदी पर पहुंचते हैं, 

ज़हन जिनका गंदा,जुबां गुलाबों सी! 

 

मेरे चरित्र को घटिया बताने वालों, 

तुम्हारे चरित्र से बदबू आती जुराबों सी! 

 

शब्द मैं फिजूल क्यों खर्चूं उनके लिए

ज्ञान की बातें दीमक लगी किताबों सी! 

 

जाने कहाँ खो गए खुशियों भरे पल

फिरती हैं घड़ी की सुईयां अज़ाबों सी !

 

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