सफल पत्रकार में विवेक और नैतिक साहस का गुण होना जरूरी 



सलीम रज़ा



पत्रकार का नाम सुनते ही लोगों के मन मस्तिष्क में एक अजब तरीके की फीलिंग जन्म लेती है। उनकी नज़रों के सामने एक ऐसे व्यक्तित्व का चेहरा उभर कर सामने आता हे जो अपनी बेवाकी और निष्पक्षता के साथ झूठ को बेनकाव करने की लड़ाई लड़ते हुये न्याय दिलवाने का अथक प्रयास करता है। पत्रकार की सिफत होती है कि उसके अन्दर खबर को ढूंढने की क्षमता होती है खबर भी वो जिसमें  जनहित और जनता के हितों को असुरक्षित होने का अंदेशा नज़र आता हो जिसको लेकर वह सत्ता पक्ष के साथ-साथ प्रशासनिक अमले को हिला देने की क्षमता रखता हो। लेकिन सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि पत्रकार क्या है ? तो पत्रकार को परिभाषित करते हुये जोसेफ पुलित्जर का कहना है कि पत्रकार राज्यश्रपी जहाज पर खड़ा वो पहरेदार है जो समुद्र में दूर तक हर छोटे-बड़े संभावित खतरे पर नज़र रखता है जिन्हे बचाया जा सकता है’वह धुंध और तूफान की ओट में छिपे खतरों के बारे में भी आगाह करता रहता है। उस समय वह न तो अपने मालिक के बारे में सोचता है और न अपनी तनख्वाह उसके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ लोगों को उस खतरे से निकालना होता है। दरअसल सही मायने में ये ही पत्रकार और पत्रकारिता का धर्म है लेकिन जैसे-जैसे समय अपने प्रवाह के साथ आगे बढ़ रहा है वैसे वैसे पत्रकार भी अपना चोला समयानुसार बदलना शुरू कर देते हैं। पत्रकार जिसे लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाता है पत्रकारों को सरकार और जनता के बीच का सेतु मानकर उनके अधिकार क्षेत्र को वृहद कर दिया जिससे पत्रकार प्रतिकूल समय आने पर सरकार और प्रशासन के खिलाफ अपनी आवाज मुखर कर सके इसीलिए पत्रकार को दूसरी भाषा में मीडिया व मास कम्युनिकेटर कहा गया था वो इसलिए कि पत्रकार पूरी आवाम का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य कि आज का पत्रकारों ने दी गई शक्तियों का दुरूपयोग करना शुरू कर दिया उनकी महत्वाकांक्षाओं के साथ-साथ धन कमाने की लालसा ने इस पेशे को बदनाम कर दिया है। अगर हम तलाशें तो चन्द पत्रकार ही ऐसे मिलेंगे जो जन भावनाओं का ख्याल रखकर अपने पेशे के साथ ईमानदारी करते होंगे इसका ताजातरीन उदाहरण आज के वक्त में प्रसारित होने वाले समाचार चैनलों की खबरें हैं जिनका जन सरोकारों से कोई लेना देना नहीं उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपने चैनल की टी.आर.पी बढाना है जिसमें मसाला खबरों के अलावा कुछ भी नहीं होता। हां प्रिन्ट मीडिया में अभी कुछ विश्वसनीयता बची है लेकिन वो भी विज्ञापन पाने के लालच में खबरों के साथ अन्याय करने लगे हैं हालांकि ऐसे चैनलों और समाचार पत्रों की तादाद ज्यादा नहीं हैं लेकिन ये नामचीन हैं इसलिए सच समाचार दिखाने और सही खबरे प्रकाशित करने वाले अखबारों के अर्शक और पाठक कम हें फिर भी इन चैनलों और और पत्र पत्रिकाओं पर शासन और प्रशासन का चाबुक तैयार रहता है ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए कि अब ये तय माना जा रहा है कि स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर पहरा खड़ा कर दिया गया या यूं कह लें कि पत्रकारों के पर कतरने नुस्खा उस लैब में तैयार कर लिया गया जो अपनी कुर्सी पर खतरा भांप लेते थै। इसी डर के चलते और अपनी रोजी-रोटी बदस्तूर जारी रखने के लिए पत्रकारों ने भी अपने रूख और रवैये में बदलाव कर दिया जिसके चलते समाचारों का बड़ी बेरहमी से न्यूजरूम में कत्ल कर दिया जाता है और जनता का माइंन्ड डायवर्ट करने के लिए समाचार चैनलों पा बेतुकी बेमतलब ग्रेकिंग खबरे चलाई जाती हैं जिनका जनसरोकार से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता। आजकल पत्रकारों की जीवन शैली और पत्रकारिता दोहन देखा जाता है जब किसी खोजी पत्रकार द्वारा कोई खबर प्रकाशित और प्रसारित की जाती है या सोशल मीडिया पर सुर्खियों में होती है तो शासन-प्रशासन हरकत में आ जाता है और उस पत्रकार के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी जाती है लेकिन उसके अगले ही दिन उस भ्रष्ट अधिकारी या नेता के पक्ष में पत्रकारों का एक बड़ा धड़ा खबर को उलट कर रख देता है जैसे मानो उस अधिकारी नेता का चरित्र बेदाग है और उक्त खोजी पत्रकार ने उस अधिकारी या नेता की छवि को दागदार करने का दुःस्साहस किया हो। ये न तो पत्रकारिता के साथ न्याय है और न ही पत्रकार को स्थापित करने वाले मापदण्ड क्योंकि पत्रकारित रसूखदारों की रखैल बना दी गई जिनका सरोकार जन भावनाओं के मुद्दे उठाना नहीं वल्कि उन दुश्चरित्र लोगों का रक्षा कवच बनना है जिसमें उनका स्वाथै निहित है। हमें इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि पत्रकाररिता हमारा धर्म है और धर्म के साथ कभी भी समझौता नहीं किया जा सकता। यह पेशा वो पाक साफ पेशा है जो हमसे मेहनत की आकांक्षा रखता है, इस पेशो में ऐसे बहुत सारे मुद्दे हें जिन पर वृहद ज्ञान की आवश्यकता तो होती ही है साथ-साथ फैसले लेने का दृढ़ संकल्प ऐसे हालातो में पत्रकारों के सामने समाज के रसूखदारों जबरन दवाब और विरोध की प्रबल संभावनायें जाग जाती हैं लिहाजा ऐसी परिस्थितियों से मुकाबला करने की क्षमता भी होनी चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं क्योंकि मेहनत करके किसी स्टोरी पर दिन रात मेहनत करने वाले पत्रकार के हौसले पर उस वक्त आधात पहुचता है जब ताकतवर को सच का दर्पण दिखाने वाले पत्रकार की स्टोरी न्यूज हैड या संपादक की मेज पर पहुंचते ही उसकी निर्मम हत्या कर दी जाती है और पत्रकार मनोवैाानिक दवाब में आकर अवसाद में चला जाता है या फिर अपने रास्ते को बदलकर उनकी कतार में खड़ा होकर सकारात्मक स्टोरी को गढ़कर जनता के सामने लाकर अपने और अपने पेशे के साथ बेमानी करता है ये उसकी मजबूरी भी हो सकती है या अपने आप को स्थापित करने की मंशा।आज के दौर मेंपत्रकारिता या तो राजनीतिक धरानों में कलरव कर रही है या फिर पूंजीपतियों की गुलाम जिसका परिणाम ये निकला कि जितनी खबरें टी.वी. चैनल्स या अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रसारित और प्रकाशित की जाती है उन्हें देखकर लगता है कि देश में विवेक और नैतिक विहीन पत्रकारिता से ही समाज का वो वर्ग खुश है जो यथास्थिति वादी की श्रेणी में आते हैं इनके आगे कभी नतमस्तक नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसा हो रहा है और देखा ये जा रहा है कि पत्रकारों में नैतिक साहस और विवेक की कमी आई है ये बहस का मुद्दा तो था ही अन्तता निष्कर्ष ये निकला कि कि उपभोक्तावादी और बाजारवाद की दुनिया में जहां महत्वाकाक्षा अपने चरम पर पहुच जाती हैं और अपने आपको स्थापित पत्रकारकहलाने की होड़ में इनके अन्दर नैतिक साहस और विवेक को जगाना टेढ़ी खीर है जिसके चलते पत्रकारिता अपने उसूलों से भटक कर रह गई। अगर आके अन्दर नैतिक साहस बना हुआ है तो आप बडे से बड़े नेता और रसूखदारों की बखिया उधेड़ने की क्षमता रखते हैं अगर आपका नैतिक साहस आपके साथ है तो आपकी लम्बाई चैड़ाई का कोई महत्व नहीं रह जाता। आज के वर्तमान दौर में जैसे पत्रकार और पत्रकारिता ने अपने चोले को बदला है ऐसा शायद ही हुआ हो ये सच है सत्ता पक्ष में बैठी सरकार के हित में पत्रकार और पत्रकारिता दौड़ती है लेकिन जनहित को लेकर लेकिन मौजूदा सरकार के वक्त में पत्रकारिता को हश्र हुआ ऐसा कभी नहीं हुआ वर्तमान सरकार के कार्यकाल में जिस तरह से संवैधानिक और गैर संवैधानिक संस्थाओं का हाल हुआ लेकिन इस बदहाल स्थिति को दर्ज कराने में पत्रकारों की भूमिका बेहद शोचनीय कही जा सकती है यदाकदा कोई खबर ऐसी चल भी गई जिस पर राजनीतिक आकाओं ने अपनी नाखुशी जाहिर की तो मीडिया घरानों में मानों शोक की लहर दौड़ गई और फिर शुरू हो गया चरण वन्दना का ऐसे में उन लोगों ने इनके आगे घुटने टेक दिये जिनके अन्दर आत्मसम्मान नाम की कोई चीज नहीं थी। बहरहाल जब हम नैतिक साहस और विवेक की बात करते हैं तो हमें उस ओर भी देखना होगा जहां खबरों के प्रकाशन या प्रसारण को लेकर पत्रकार को भीड़ भरे चैराहे पर गोली से मार दिया जाता है या फिर सत्ता पक्ष की तरफ से ऐसे निडर और बेवाक पत्रकारों को झूठे केस में फंसाया जाता है, हमारे छोटे से प्रदेश उत्तराखण्ड में भी ये रीत शुरू हो गई जिसका उदाहरण उमेश शम्हमारे छोटे से प्रदेश उत्तराखण्ड में भी ये रीत शुरू हो गई चाहे उमेश शर्मा हो ,शिव प्रकाश सेमवाल हों या फिर राजेश शर्मा भले ही उच्च न्यायालय से सरकार को मुंह की खानी प्ड़ी हो, सवाल ये उठता है कि ऐसे माहौल में साधन विहीन पत्रकार अपनी पत्रकारिता को कैसे धार दे क्योंकि उसके पास ऐसा कोई सुरक्षाकवच नहीं हैं जिससे वो सुरक्षित रह सके लिहाजा पत्रकारों को अपना सुरक्षाकवच खुद बनाना होगा और उसकी रक्षा भी स्वयं करनी होगी इसके लिए जरूरी है कि उसके अन्दर नैतिक साहस के सारथ विवेक और आन द स्पाट फैसले लेने की क्षमता हो तभी पत्रकारिता को अपने स्वरूप में लौटाया जा सकता है जिसकी जिम्मेदारी पत्रकार की होगी और जवाबदेही भी।


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