कितना कारगर होगा दो राजधानी का मॉडल ?

 




देहरादून/ गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का ऐलान करके त्रिवेंद्र सरकार ने मतदाताओं से 2017 के चुनाव में किया एक बड़ा वादा पूरा कर दिया, लेकिन राजधानी को लेकर बहस अभी बाकी है। बहस का नया विषय है- दो राजधानी का मॉडल कितना कारगर होगा ? राजधानी का मुद्दा राज्य के जन्म से ही सियासी भंवर में फंसा रह गया। राज्य निर्माण के लिए संघर्ष करने वाले संगठन गैरसैंण को राजधानी देखना चाहते थे। सरकार चलाने वाले सियासी दल इसे छेड़ने के नफे-नुकसान में फंसकर टालते रहे। गैरसैंण की तरफ पहला कदम विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 2013 की शुरुआत में उठाया। मकर संक्रांति पर उन्होंने विधानसभा भवन का शिलान्यास कर दिया। उस दौर में कांग्रेस के दो नेता सतपाल महाराज और गोविंद सिंह कुंजवाल गैरसैंण के बड़े पैरोकार थे। बहुगुणा की विदाई के बाद भी कुंजवाल ने पैरोकारी बरकरार रखी, लेकिन हरीश रावत सरकार ने राजनीतिक संतुलन बिगड़ने के खतरे से बचने के लिए इसे छेड़ना ठीक नहीं समझा। राज्य में बारी बारी से सरकार चलाने वाली भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक अरसे से राजधानी के मुद्दे पर रक्षात्मक नजर आए। त्रिवेंद्र सरकार ने अचानक बड़ा फैसला लेकर तात्कालिक रूप से भाजपा को बढ़त दिला दी। राजनीतिक रूप से भाजपा इसका श्रेय लेने की हकदार हो गई। इसके बावजूद राजधानी का सवाल खत्म नहीं हुआ। गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी होने का मतलब है कि गर्मियों को छोड़कर बाकी समय के लिए देहरादून की वर्तमान स्थिति बनी रहेगी। राजनीतिक संतुलन के लिहाज से भी यह फैसला भाजपा के लिए सुविधाजनक है। इससे सभी पक्षों को संतुष्ट करना सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए आसान होगा। यक्ष प्रश्न है- क्या उत्तराखंड दो राजधानी का बोझ उठा पाएगा? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। हिमाचल प्रदेश यह प्रयोग 17 साल पहले कर चुका है। वहां भाजपा की धूमल सरकार ने धर्मशाला को शीतकालीन राजधानी बनाया और बाद में कांग्रेस की वीरभद्र सरकार ने विधानभवन बनाकर सत्र की शुरुआत की। जाड़ों में कुछ दिन के लिए चलती-फिरती सरकार धर्मशाला चली जाती है और विधानसभा का एक सत्र वहां कर लिया जाता है। उस दौरान कांगड़ा की जनता को मुख्यमंत्री और मंत्रियों से मिलने और कुछ मसले हल करवाने का मौका जरूर मिल जाता है, पर राजधानी जैसा रुतबा आज भी धर्मशाला को हासिल नहीं हो पाया। ऊपर से सरकार पर खर्च का बोझ बढ़ गया। गैरसैंण में सरकार कितने दिन रहेगी, क्या वास्तव में पूरे ग्रीष्मकाल में सरकार गैरसैंण से ही चलेगी? वहां कुछ महीने सरकार पूरी नौकरशाही के साथ बैठे तो नक्शा बदल सकता है। विकास की उम्मीदें पूरी हो सकती हैं। सरकार को हिमाचल से सीख लेकर नई राह पकड़नी होगी, अन्यथा यह हिमाचल की तरह दूसरी राजधानी के विफल मॉडल का एक और उदाहरण बन जाएगा।


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