महाराष्ट्र के बाद बिहार में भी सियासत ले सकती है अंगड़ाई


  
सलीम रज़ा
महाराष्ट्र की सियासत में जो भी घटा उसे लेकर राजनीतिक विशलेषज्ञों की क्या राय है उससे कोई वास्ता नहीं है, लेकिन पार्टी समर्थकों के बयानों के नीचे दबकर हर राय या विशलेषण अपना महत्व नहीं रखती है। सोशल मीडिया पर राय देने वालों की बहुत लम्बी कतार है जो महाराष्ट्र की सियासत को विचारों की सियासत का कत्ल बता रहे हैं । सबसे गर्म सवाल ये है कि अब विचारों की सियासत का स्थान कहां है अब तो सियासत में विचार हैं जो वक्त के साथ बदलते रहते हैं जबसे सियासत में विचार आया उसी ने अचसरवादी विचारधारा को जन्म दिया है जितना भी सियासत में ड्रामा चल रहा है ये सब अवसरवादी सियासत का ही परिणाम है। खैर अब तो सियासत में आदर्शों का कोई मुल्य ही नहीं रह गया। केन्द्र में सत्तासीन एन.डी.ए. सरकार का जो ग्राफ था शायद धीरे-धीरे वो नीचे आने लगा है, पिछले कई विधान सभा चुनावों में आये परिणाम इस बात का संकेत हैं कि मतदाता किसी भी पार्टी की राह आसान नहीं बना रहा है। सरकारे अगर बन रही हैं तो जोड़ तोड़ सेे फिलहाल महाराष्ट्र में एन.सी.पी. और कांग्रेस ने जो खेल खेला है उसके बाद विपक्ष को एक नई संजीवनी मिल गई जिसके चलते हर प्रदेश में विपक्ष का और भी ज्यादा भाजपा के खिलाफ हमलावर होने के आसार हैं । अब चूंकि बिहार में भी अगले साल यानि 20120 में विधान सभा चुनाव होने है ऐसे में बिहार का भी सियासी पारा गरम होने लगा है, उम्मीद तो ये ही लगाई जा रही है कि कहीं बिहार में भी देश को एक और रोमांचक मैच देखने को मिल सकता है, फिलहाल अंगड़ाई लेती बिहार की सियासत तो कुछ ऐसे ही संकेत दे रही है।


 याद होगा जब 2019 में लोकसभा चुनाव संपन्न हुये थे देश भर से एन.डी.ए. की बढ़त की खबरें आ रही थी तो बिहार में एन.डी.ए. के सहयोगी दल जनता दल यूनाईटेड भी जश्न मना रहा था लेकिन अकेले दम पर भाजपा 300 के पार होने के बाद अचानक उनकी खुशियों की चमक फीकी पड़ गई उसकी वजह थी कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना ऐसे में सहयोगी दलों की सोंच में चिन्ता पैदा होना लाजिमी है, क्योंकि उसे मालूम है कि केन्द्र की सत्ता में उनका अहम रोल पैक अप के कगार पर पहुंच गया है ?। बिहार में भी नितीश कुमार बैठे-बैठे कुछ ऐसा ही सोच रहे थे शायद उनकी प्रार्थना भी ये हो कि भाजपा बहुमत से दूर ही रहे ऐसे में मोल-तोल जोड़-गांठ करने के मौके तो हाथ आयेंगे लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया। आपको याद होगा कि नितीश ने ही दूसरे कार्यकाल में मोदी के नाम का प्रस्ताव रखा था शायद अभी भी उन्हें उम्मीद थी कि उनकी पार्टी के सांसदों को मंत्रिमंडल में जगह मिलेगी क्योंकि अमित शाह और नितीश के दरम्यान कई दौर की बैठकों ने नितीश की उम्मीदों को जगाये रखा था, लेकिन शपथ ग्रहण पर नितीश का उस वक्त सारा उत्साह ठंडा पड़ गया जब अमित शाह ने कहा कि सभी सहयेगी दलों के एक-एक सांसदों को ही मंत्रिमंडल मं स्थान मिलेगा बस फिर क्या था ? बिहार से दिल्ली ताजपोशी कराने आ रहे आर.पी.सिंह को वहीं रोक दिया गया।


\इसके पीछे दो बातें छिपी थीं एक तो वो अपनी पार्टी के एक से ज्यादा लोगों को मंत्री मंडल में जगह दिलाने के उत्सुक थे तो दूसरी तरफ अपने प्रतिद्वन्दी राम विलास पासवान से अववल रहने की उनकी मंशा थी । बहरहाल दिल्ली से पटना आते आते ही नितीश ने अपने विचार बदल दिये और मंत्रिमंडल में अपनी पार्टी को शामिल करने पर मनाही कर दी, बस यहीं से नितीश के मन में भाजपा के प्रति लगाव कम देखा जा रहा है। अब कयास ये लगाये जा रहे हैं कि बिहार की सियासत में अगर भाजपा अपनी जीत का परचम लहराती है वो मंत्र था जनता दल से  राजद को  दूर रखना ।


सियासी गलियारों में इस बात की भी चर्चा गरम है कि आगामी 2020 के विधान सभा चुनाव में हो सकता है कि जनता दल के नीतिश कुमार महाराष्ट्र की तर्ज पर एक नया गठबन्धन तलाशने की जुगत में हैं। ये गठबन्धन भाजपा और राजद को अलग छोड़कर भी हो सकता है, कयास ये भी लगाये जा रहे हैं कि नितीश कुमार पासवान , मांझी और कांग्रेस के साथ मिलकर नये गइबन्धन को पंख लगा सकते हैं। वहीं बिहार में भाजपा को पस्त करने के लिए कांग्रेस अपना अहम रोल निभा सकती है। जहां एक तरफ भाजपा बिहार में संगठन को मजबूत बनाकर नितीश के हर कदम पर निगाह रख रही है वहीं जदयू  बिहार में मोदी मैजिक को फेल बताकर अपने कार्यों का असर बता रही है। खैर महाराष्ट्र की सियासी बाजी पलटने के बाद ये बात तो तय है अब दूसरे प्रदेशों में भी विपक्ष और भी प्रभावी होकर भाजपा की राह को मुश्किल बनायेगा फिलहाल बिहार की नब्ज ये ही बता रही है कि वहां भी भाजपा को बैकफुट पर लाने के लिए अन्दुरूनी तैयारियां चल रही हैं । 


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