लघुकथा : "बरसात में भीगते सपने"

 




(सलीम रज़ा पत्रकार)

सुबह से आसमान काले बादलों से घिरा था। बारिश की ठंडी बूँदें छत से टप-टप गिर रही थीं। मोहल्ले के बच्चे रंग-बिरंगे रेनकोट पहनकर स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे।

छोटा आर्यन दरवाज़े के पीछे खड़ा होकर उन्हें देख रहा था। उसकी आँखों में चमक थी, लेकिन होंठों पर हल्की-सी उदासी। उसने धीरे से पापा के पास जाकर कहा—

"पापा… मुझे भी रेनकोट चाहिए।"

पापा अख़बार पढ़ रहे थे। उन्होंने उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुराकर बोले—
"बेटा, अभी तो तुम्हारे पास छाता है न।"

आर्यन ने होंठ भींच लिए, फिर धीरे से बोला—
"पापा, छाता पकड़े-पकड़े मेरे हाथ भीग जाते हैं… और जब सब दोस्त रेनकोट पहनकर हँसते-गाते स्कूल जाते हैं, तो मुझे लगता है… मैं अलग हूँ।"

पापा चुप हो गए। उन्हें याद आया कि इस महीने की तनख्वाह का बड़ा हिस्सा घर का किराया और माँ की दवाइयों में चला गया है। जेब में बचे पैसों से घर का राशन ही मुश्किल से आ पाएगा।

बाहर बारिश तेज़ हो गई। आर्यन बरामदे में जाकर पानी में गिरती बूँदों को देखता रहा। अचानक पापा अंदर गए, अपनी पुरानी बरसाती निकालकर कैंची से काटने लगे।

थोड़ी देर बाद उन्होंने सिलाई से उसे छोटा कर दिया। अब वह रेनकोट बन चुका था — भले ही थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा, लेकिन प्यार से बुना हुआ।

पापा ने मुस्कुराकर कहा—
"लो बेटा, यह तुम्हारा नया रेनकोट।"

आर्यन की आँखें चमक उठीं। उसने रेनकोट पहनकर पापा को कसकर गले लगा लिया। बाहर बारिश अब भी बरस रही थी, लेकिन उस छोटे से आँगन में पिता का स्नेह सबसे बड़ा आसमान बन चुका था।

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