आलेख-वे मर कर भी जिंदा हैं _

 




                                                            प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"//

 
गाँव अब मर चुके हैं। शहर ने केवल शरीर जिंदा रखा है आत्मा ने राजनीतिज्ञों की राह पकड़ ली है। माताभूमिः तब थी जब सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां थी। जब माता भूमि थी तब गाँव पिता थे। शहर तब भी थे एक अजूबे की तरह विदूषक बनकर। गाँव केवल पिता नहीं पितर होते सात पीढ़ी वहाँ जीवंत हो जाती। कोई बाबा के नाम से पहचानता कोई परबाबा के। आज जिस शहर में हम रहते वहाँ लोग मकान नंबर से जाने जाते। पर गाँव में पितर शरीर से नहीं पर जीवंत थे लोक वाणी में।
 
तमाम महापुरुषों की जीवनी आत्मकथा पढ़ता हूं। आज तो आत्मकथा फैशन हो गया है। ऐसा लगता है सबके सब सताये हुए थे और अपने पराक्रम से सबको पराजित करते आगे बढ़े हैं। आत्मकथा कम दंभकथा अधिक। इसलिए वे मुझे नहीं प्रभावित करतीं। मुझे तब गांव की माटी की अनगढ़ मूरतें याद आती हैं जो पीढ़ियों पहले गुजर गयीं जिनकी कोई गाथा नहीं है पर उनकी किंवदंतियां हवा मे विद्यमान हैं। वे महापुरुष नहीं थे।
उनमें छल था, पर कपट नहीं। वे स्वार्थी थे पर किसी को हानि नहीं पहुँचाते। वे बूढ़े वंदे मातरम् नहीं जानते थे पर अपनी जमीन के लिए सिर फोड़ने को तैयार रहते। गांव उनका विश्व था, बारात जाना पर्यटन था, भोज भात विलास था।
 
वे दुश्मनी करते तो खलिहान जलाते पर साल भर उसका परिवार चलाते। उन्हें कोई मनरेगा नहीं ज्ञात पर हर वर्ष एक दो कूप नये खुद जाते वह भी केवल चबैने पर। कुँआ खोदने में मजदूरी उनके लिए पाप था। आम महुआ के फल बेचने को अपराध मानते। वे छोटे सपने पालते। मुखारी दबाये सुबह पूरा गाँव घूम आते। दातून किसी के नीम की, कुल्ला किसी दूसरे के दरवाजे और स्नान किसी तीसरे के दरवाजे। दरवाजे बंद रहते पर कुँए पर रस्सी बाल्टी रहती। छोटे छोटे सपनों वाले वे पितर आम महुआ नीम बरगद पीपल और कुआँ बन कर जिंदा रहते। वे वृक्ष उनका नाम पा जाते। लेकिन अब उनकी मूरतें बनाने वाली माटी बिक गयी है उनकी पहचान बने कूप सूख गये हैं, दरख्त भी कट गये हैं।
लोग गर्व से बताते हैं एसी, टीवी, सड़क गाँव में भी है पर ये केवल व्यक्तिगत सुख हैं। वे दरवाजे कहाँ हैं जिनकी शान दरवाजे पर बँधे बैलों और गायों से आँकी जाती थी। सूनी चारपाई और खाली तख्त पर बैठे चाय सुड़कते लोग। मुझे अब भी लगता है कि तमाम विकास के दावों और स्वच्छता अभियानों के बावजूद बैलों के बीच रहने वाले, धूल माटी सने गोबर लिपे आँगन वाले वे पितर ऊपर से मैले पर भीतर से स्वच्छ थे। वे जाति धर्म ईर्ष्या द्वेष शत्रुता मित्रता अच्छाई बुराई सब एक साथ जीते हुए भी ढोंगी नहीं थे।
 
वे महापुरुष नहीं थे पर पूरे मनुष्य थे। संभ्रांत नहीं पर  भ्रांति से मुक्त थे। उन्हें दुख को सुख में बदलने की कला आती थी। सुख मे भी दुखी रहने की आदत उनकी नहीं थी। सपने पालना महामानवों के लक्षण हैं। मनुष्य होने के लिए सपनों से अधिक जरूरत जागते रहने की है
 
 
 
 
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
 

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