आपातकाल के 47 साल : अभिव्यक्ति की आजादी पर बेरहमी का चाबुक



  सलीम रज़ा//

 25 जून 1975 का वो काला अध्याय देश के माथे पर लगा ऐसा बदनुमा दाग है जिसकी त्रासदी आज भी महसूस की जाती है। वो काला दिन जब अभिव्यक्ति की आजादी पर बेरहमी से चाबुक चलाया गया था मौलिक अधिकारों का कत्ल किया गया था । चार दशक बीत जाने के बाद उसकी टीस आज भी महसूस की जा सकती है। आपातकाल से पहले का दौर पूंजीपतियों और सरकार के दरम्यान अघोषित युद्ध जैसा था क्योंकि सरकार की नीतियों से उनका तालमेल नहीं बैठ रहा था। वहीं जमीदारों के खिलाफ इंदिरा सरकार के उठाये गये कदमों से ये वर्ग भी सरकार की नीतियों से खासा नाराज था, आलम ये था कि सरकार की गलत नीतियों की वजह से आम जन जीवन अस्त-व्यस्त हो गया मंहगाई अपने चरम पर थी जिससे निम्न वर्ग के लोगों का जीना मुहाल हो गया था । चारो तरफ सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन किये जाने लगे , आर्थिक मंदी के चलते सारे कारोबार प्रभावित होने लगे ऐसे में बेरोजगारी बढ़ने लगी थी ।

विपक्ष को भी सरकार के खिलाफ बोलने का मौका हाथ लग गया था। निरंतर बिगड़ रहे हालात और विपक्ष के हमलावर होने से इंदिरा गांधी चिन्तित थीं,लेकिन हालात सुधारने के कोई प्रभावी कदम उठाये जाते कि इससे पहले सबसे ज्यादा शान्ति प्रिय माने जाने वाले गुजरात में हालात बेकाबू हो गये थे। बेरोजगारी से तंग आकर छात्रों ने सड़कों पर उतरकर आन्दोलन करना शुरू कर दिया जो धीरे-धीरे हिसंक रूप ले चुका था। विपक्ष में बैठे नेताओं ने छात्रों के आन्दोलन की धार को और भी ज्यादा पैना बना दिया था , नतीजा ये हुआ कि उग्र हो रहे आन्दोलन ने आगजनी और लूटपाट का रूप ले लिया । राज्य में अराजकता का माहौल पैदा हो गया, आन्दोनकारी राज्य सरकार पर इस्तीफा देने का दबाव बनाने लगे, हालात बेकाबू होते देखकर पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर बर्बरता पूर्ण सलूक किया ऐसे उपजे हालातों में कभी जवाहर लाल नेहरू के करीबी माने जाने वाले नेता मोरारजी देसाई ने आमरण अनशन शुरू कर दिया।

ये दौर 1974 के दशक का था राज्य के हालात नियंत्रण से बाहर होते देख इंदिरा गांधी ने राज्य सरकार को बर्खास्त करके वहां पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। गुजरात आन्दोलन की चिंगारी बिहार तक पहुच गई, बिहार में भी छात्र आन्दोलन शुरू हो गया वहां पर भी विपक्ष छात्रों के साथ सड़को पर उतर आया। बिहार में भी हालात काबू से बाहर होते देख पुलिस ने आन्दोलन कर रहे लोगों पर लाठियां तो चलाईं ही लेकिन हालात बदलते न देख पुलिस को आन्दोलन कुचलने के लिए आन्दोलन कर रहे लोगों पर गोली चलानी पड़ी जिसमें दो दर्जन आन्दोलनकारियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। सरकार की तानाशाही और पुलिस के बर्बरता पूर्ण रवैये से नाराज होकर जय प्रकाश नारायण भी आन्दोलनकारियों के साथ सड़क पर उतर आये, हालांकि वो राजनीति से सन्यास ले चुके थे। जयप्रकाश नारायण को सरकार की तानाशाही अखर गई थी इसलिए उन्होने खुद सरकार के खिलाफ आन्दोलनकारियों के साथ मिलकर मोर्चा खोल दिया। आपामकाल में अगर सबसे ज्यादा कोई निशाने पर था तो वो थे नेता, आपातकाल की घोषणा के बाद अनुचित तरीके संे चुनावी नियम कानून में रद्दो-बदल किया गया ।

इंदिरा गांधी इस हद तक तानाशाह बन गईं थी कि जब उन्होने राघ्ट्रपति से देश में आपातकाल लगाने का अनुरोध किया उस वक्त उन्होंने मत्रिमंडल की राय तक जानने की कोशिश नहीं करी। आपातकाल की घोषणा से ऐन पहले इंदिरा गांधी ने सोची समझी रणनीति के तहत राज्य के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं को गिरफतार करने के आदेश दे दिये थे । वहीं इंदिरा गांधी को डर था कि उनके इस कदम से कांग्रेस के अन्दर भी हलचल होगी इस लिहाज से उन्होंने जयप्रकाश नरायण के साथ काग्रेस सदस्य चन्द्रशेखर को भी गिरफतार करवा दिया। गिरफतार करने के बाद नेता कहां और किस जेल में हैं इसकी सूचना भी किसी को नहीं थी जयप्रकाश नारायण तो जेल में इतने बीमार थे कि उनके मौत का जिम्मेदार भी इंदिरा को ठहराया गया था । कुल मिलाकर जेल में बन्द नेताओं को तकरीबन पचास दिन तक प्रताड़नाओं के दौर से गुजरना पड़ा था। आम जनता डरी सहमी थी, किसी को भी कोई खबर सुनने को नहीं मिल रही थी। आपात काल के दौरान इंदिरा ने लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ पर भी चाबुक चलाते हुये उसकी आजादी पर पहरा लगा दिया था।

पत्रकारों और प्रेस पर धावे बोले जाने लगे एक तरह से लोकतंत्र का खून कर दिया गया था । निरंकुश बनी पुलिस भी सरकार के दबाव में बर्बरता पूर्ण व्यवहार कर रही थी, प्रताड़ना का ये आलम था कि महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया था। अभिव्यक्ति की आजादी पर चाबुक चलाने को दौर तब हुआ जब जनवरी 1975 में कानून में संशोधन करते हुये अनुच्छेद 19 को निलम्बित कर दिया गया और अखबारों पर सैंसर लगा दिया गया। सैसरशिप के बाद अखबारों और समाचार एजेन्सियों को नियंत्रित करने के लिये कानून बनाया गया जिससे भ्रामक समाचार प्रकाशित न हो पायें और अखबार के माध्यम से किसी को गिरफतारी की सूचना न मिल पाये। आपातकाल के दौरान पक्ष और विपक्ष को कमजोर बनाने के लिए जहां आर्थिक नीति में जैसा चाहा बदलाव किया गया तो वहीं श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों पर भी कैंची चलाई गई । बहुराष्टीय कम्पनियों को देश में निवेश करने का अनुरोध किया उनके सामने रखा श्रमिकों की कम मजदूरी और अनुशासित रहकर ज्यादा काम, देखा जाये तो श्रमिकों के बुरे दिन तो यहीं से शुरू हो गये थे। ं कम मजदूरी और ज्यादा काम के चलते मजदूर अगर हड़ताल करने की कोशिश करते तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता था, सरकार का मजदूरों पर दमनकारी नीति न सिर्फ उन्हें दबाने की थी वल्कि जनता की आवाज दबाने के लिए भी थी। दूसरी तरफ इंदिरा गांधी अपने बेटे संजय गांधी को राजनीति में स्थापित करना चाहती थी लिहाजा वो सरकारी कामकाज में दखल देने लगे। सरकार के बीस सूत्रिय कार्यक्रम में एक सूत्रीय कार्यक्रम जनसंख्या नियंत्रण को लेकर था जिसका इतना दुरूपयोग हुआ कि गैर शादी शुदा लोगों की भी नसबन्दी कर दी गई ।

ये वो दौर था कि पुरूष घर से बाहर चले गये और छिप -छिप कर घर में आते थे। आपातकाल में अफसरों और पुलिस ने उन्हें दिये गये अधिकारों का जमकर गलत इस्तेमाल किया उस दौर में भ्रष्टाचार चरम पर था संजय गांधी सर्वे सर्वा बन गये थे अधिकारियों से लेकर नेता और आमजन तक में उनका खौफ था । क्योंकि ये डर था कि अगर उनकी बात न मानी तो हो सकता है किसी मामले में उन्हें फंसा दिया जायेगा। कुल मिलाकर आपातकाल के दौरान सरकार ने देश के अन्दर आतंक का माहौल पैदा कर दिया था, इस निरंकुशता और हिटलर शासन से तंग आकर 1977 में हुये चुनाव में जनता ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते हुये न सिर्फ लोकतंत्र की लाज बचाई वल्कि इंदिरा गांधी के उस निरंकुश शासन का भी अन्त कर दिया। आज भी उन आपातकाल के दिनों को याद करके एक सिहरन सी होती है सही में ये वो दौर था जिसमें लोकतंत्र का कत्ल किया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी पर चलाया गया चाबुक था , ये वो दौर था जो आज भी एक कालेे अध्याय से कम नहीं है जो सचमुच देश के माथे पर एक बदनुमा दाग की तरह था।
सलीम रज़ा
देहरादून उत्तराखण्ड

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