विश्व खाद्य दिवस- भूख से लड़ने में क्यों पिछड़ रहा भारत?वादों ने बढ़ाये भुखमरी के आंकड़ें

 



सलीम रज़ा
हम उस देश में रहते हैं जहां सार्वजनिक मंचों पर नेतागण देश को महा शक्ति की तरफ अग्रसर होने का सपना दिखा रहे हैं,लेकिन जिस देश का बचपन रोटी के लिए बिलखता हुआ और जिस्म से जर्जर मिले तो किस तरह से सब्र आये कि हम महा शक्ति बनने की तरफ अग्रसर है। जनाब आंकड़ों की जादूगरी तो कोई इन नेताओं से पूछे जिनके लच्छेदार भाषणों से ऐसी केलोरी मिलती है कि खुद ब खुद भूख खत्म हो जाती है, वो इसलिए नहीं कि पेट भर गया वल्कि ये सोच कर कि हम और हमारा देश किस तरफ बढ़ रहा है । हो सकता है कि मेरी ये बात किसी के गले से नीचे न उतर रही हो लेकिन ग्लोबल हंगरी इन्डेक्स में भारत के कई पायदान नीचे आ जाने से जरूर उसके विश्व गुरू बनने के रास्ते में भुखमरी का आंकड़ा खड़ा मुह चिढ़ा रहा है। बढ़ते भुखमरी के आंकड़ों के चलते 2030 तक भुखमरी हटाने का अन्तरराष्ट्रीय लक्ष्य भी अब खतरे में पड़ गया है। ये कितना दुःखद है कि संयुक्त राष्ट्र  अपनी रिपोर्ट में भुखमरी के कारणों को अघोषित युद्ध की स्थिति, जलवायु परिवर्तन, हिंसा, प्राकृतिक आपदा जैसे कारणों की तो बात करता है लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था,बाजार का ढ़ांचा,नव सामा्रज्यवाद और नव उदारवाद भी एक बड़ी वजह है इस पर संयुक्त राष्ट्र  अपनी खामोशी क्यों रखता है ये अत्यंत सोचनीय मुद्दा है। अब आप ही बताइये कि भारत को वैश्विक महा शक्ति और वैश्विक गुरू बनाये जाने की दलीले ये रिपोर्ट हमारी पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। हमारे नीति नियंताओं और उनके सहयोगी जो अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए अपने देश की जनता का ध्यान दूसरी तरफ मोड़ देते हैं। 


भुखमरी शब्द को अगर हम इतिहास की नजर से देखें तो भुखमरी का मतलब होता है मृत्यु दण्ड यानि इस वक्त जो दैनीय भारत की गिरती रैंकिंग इस देश के नौनिहालों को मृत्युदण्ड के समान है। भारत में चाहें कोई भी सरकार हो दोषारोपण करना तो सियासत का अंग बन चुका है लेकिन किस तरह से बुनियादी जरूरतों की योजनाओं को प्राथमिकता के अनुसार  से धरातल पर उतारा जाये इसमें सरकार की  उदासीनता नजर आती है। हिन्दुस्तान ऐसे देश में जहां मौजूदा सरकार देश को विश्व गुरू बनाये जाने का सपना दिखा रही है, नयू इन्डिया का खाका खींचकर अपने आप को सुद्धृढ़ देशों की श्रेणी में लाकर खड़ा करने पर वाहवाही लूट रही हो लेकिन जी.एच.आई की रिपोर्ट ने खुलासा करके ये साबित कर दिया कि मंचों पर रसीले और धारदार जुमलों से देश अग्रिम पंक्ति में नहीं आ सकता, क्योंकि जिस देश का भविष्य वाल्य अवस्था में ही भुख से बिलबिलाने लगे फिर देश का क्या होगा। मौजूदा समय में सियासत का जो ट्रेन्ड अपनाया जा रहा है उससे देश के अन्दर सरकार के खिलाफ नकारात्मक संदेश जाना लाजमी है। कितना दुःखद है कि भारत ऐसे देश में सरकारों के आने जाने और अपने आप को अच्छा साबित करने के बावजूद भी देश की चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ की जो हालत है वो अत्यंत सोचनीय है ,लेकिन फिर भी सरकार अपने आप को अव्वल साबित करने की कोशिश में लगी है। कितना शर्मनाक है भारत के लिए कि जी.एच.आई. में 117 देशों की रैंकिंग में भारत भूख से लड़ाई लड़ने में पिछड़ते हुये 102 नम्बर पर आ खड़ा हुआ है उससे भी ज्यादा शर्मनाक है कि हम आज भुखमरी में पाकिस्तान से भी पीछे हैं।  उससे भी ज्यादा दुःखद है कि भारत की ताजा रैंकिंग एशियाई देशों में सबसे खराब है। 


ग्लोबल हंगरी इन्डैक्स की रिपोर्ट के मुताबिक चार ऐसी वजह हैं जिनके पेशेनजर रिपोर्ट तैयार होती है जैसे अबादी में कुपोषणग्रस्त लोगों की तादाद, बाल मृत्युदर, अनडेप्लव्ड बच्चों की संख्या और अपनी उम्र की तुलना में कम वजन और छोटे कद के बच्चों की गणना इन्हीं आधार को ध्यान में रखकर ये आंकड़े जारी होते हैं। हमारे देश में महिलाओं के हालात भी कुछ अच्छे नहीं हैं 50 फीसद से भी ज्यादा युवा उम्र में महिलायें (एनीमिया) खून की कमी से जूझ रही हैं। आई.एफ.पी.आर.आई की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच साल तक के बच्चों की कुल आबादी का पांचवा हिस्सा अपने कद के मुताबिक कमजोर है तो इसके साथ ही एक तिहाई से भी अधिक बच्चों की लम्बाई अपेक्षार्कत कम है। जरा ध्यान दें 12 साल पहले जब ये सूची बनी थी तब भारत का स्थान 119 देशों की रैंकिंग में 97 नम्बर पर था ऐसे में बिल्कुल स्पष्ट है कि आज 12 साल बाद भी हम जहां थे वहीं पर खड़े नजर आ रहे हैं। 2016 में भी एन.एन.एम.बी की रिपोर्ट में साफ कहा गया था कि ग्रामीण भारत में 70 प्रतिशत लोग निवास करते हैं और ये लोग आवश्यक पोषक तत्वों का उपयोग कम करते हैं ये भी कहा गया है कि भारत का खान-पान का स्तर उससे भी कम है जो चार दशक पहले था । कुल मिलाकर जो आंकड़े हैं वो ये बताते हें कि 35 फीसद से ज्यादा ग्रामीण पुरूष और महिलायें कुपोषण के शिकार और 42 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कम वजन के पाये गये हैं। अब आप ही बताईये कि ऐसे आंकड़े हमारी दखावटी जिंदगी और ओर आर्थिक चमक दमक के दावों को अंगूठा जरूर दिखाते हैं। 


बहरहाल जरूरत इस बात की है कि भूख की इस लड़ाई में केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ वैश्विक संगठन अपने अपने प्रोग्रामों को और भी प्रभावी व बेहतर ढंग से लागू करें। ये कहना गलत नहीं होगा कि मानव विकास के मामले में भारत को निरंतर हाथ लग रही असफलताओं के मद्देनजर आर्थिक विकास का रास्ता चुनने के वजाए समग्र विकास का वह वैकल्पिक रास्ता इख्तियार करना चाहिए जिसमें स्वास्थ,शिक्षा,और रोजगार के साथ जीवन शैली पर भी तवज्जो दी जाये। क्योंकि वजन के मामले में भारतीय बच्चे इतने पीछे हैं कि उनसे अच्छे तो यमन के बच्चे हैं ये जुमला नहीं अत्यंत सोचनीय और शर्मनाक ही कहा जा सकता है कम से कम भारत ऐसे देश के संदर्भ में। 


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