इंदिरा का आपातकाल: डर, दबाव और लोकतंत्र की जंग

 



( सलीम रज़ा पत्रकार ) 

भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का सबसे गंभीर राजनीतिक और संवैधानिक संकट 25 जून 1975 को आया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की। यह निर्णय न केवल राजनीतिक रूप से विवादास्पद था, बल्कि इससे भारत के लोकतंत्र की नींव तक हिल गई। 21 महीने तक चले इस आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत अधिकार, न्यायपालिका की स्वायत्तता और मीडिया की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से बाधित कर दिया गया।

आपातकाल की पृष्ठभूमि में कई घटनाएं थीं। 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी को भारी जीत मिली थी, लेकिन चार साल बाद 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से उनके चुनाव को अवैध ठहराया। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को भ्रष्ट चुनाव आचरण का दोषी ठहराते हुए उनके सांसद पद को शून्य घोषित कर दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बने रहना असंभव होता जा रहा था। उसी समय देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्रों और युवाओं का बड़ा आंदोलन चल रहा था, जिसे "संपूर्ण क्रांति" आंदोलन कहा गया।

इन परिस्थितियों में इंदिरा गांधी ने राजनीतिक संकट को 'आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा' घोषित करते हुए राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाने का सुझाव दिया, जिसे तत्काल स्वीकार कर लिया गया। इस घोषणा के साथ ही लोकतंत्र का चरित्र रातोंरात बदल गया।

आपातकाल लागू होने के बाद सबसे पहले नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त मौलिक अधिकार – जैसे भाषण, प्रेस, अभिव्यक्ति, आंदोलन, और संगठन की स्वतंत्रता – निलंबित कर दी गईं। न्यायपालिका की भूमिका सीमित कर दी गई और "हैबियस कॉर्पस" जैसे संवैधानिक अधिकारों को भी निष्क्रिय कर दिया गया। इसका अर्थ यह था कि किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए गिरफ्तार किया जा सकता था और उसके पास न्यायालय में अपील करने का भी अधिकार नहीं होगा।

मीडिया पर व्यापक सेंसरशिप थोप दी गई। अखबारों को सेंसर बोर्ड से अनुमति के बिना कुछ भी प्रकाशित करने की अनुमति नहीं थी। कई संपादकों को जेल भेजा गया, प्रेस पर छापे पड़े और समाचार पत्रों के संस्करण रोक दिए गए। "इंडियन एक्सप्रेस" और "द स्टेट्समैन" जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने इस घुटन को अनुभव करते हुए अपने पहले पृष्ठ पर खाली कॉलम छोड़ दिए, जो असहमति की प्रतीक बन गए।

इस दौरान हजारों राजनीतिक विरोधियों को जेल में बंद कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, जॉर्ज फर्नांडिस और कई अन्य प्रमुख नेताओं को नजरबंद या बंदी बना लिया गया। इनमें से कई लोगों को महीनों तक बिना मुकदमे के रखा गया। हजारों कार्यकर्ताओं और सामाजिक संगठनों के लोगों को भी गिरफ्तार किया गया।

आपातकाल के सबसे विवादास्पद पहलुओं में एक था जबरन नसबंदी अभियान। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी के प्रभाव में चलाए गए इस अभियान में देशभर के लाखों गरीबों को जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। यह कार्यक्रम स्वास्थ्य और जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर शुरू किया गया था, लेकिन इसका कार्यान्वयन निर्मम और अमानवीय था। बलपूर्वक की गई इन नसबंदियों ने सरकार के खिलाफ व्यापक आक्रोश को जन्म दिया।

इस बीच, 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान में 42वां संशोधन किया, जिसे "मिनी संविधान" कहा जाता है। इस संशोधन ने केंद्र सरकार को और अधिक शक्तियाँ प्रदान कीं, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित किया गया और "समाजवाद", "धर्मनिरपेक्षता" जैसे शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए। लेकिन इसी संशोधन ने कार्यपालिका को जवाबदेही से बहुत हद तक मुक्त कर दिया और लोकतांत्रिक संतुलन को विकृत कर दिया।

मार्च 1977 में इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की। उन्हें विश्वास था कि उनकी लोकप्रियता अब भी बनी हुई है, लेकिन चुनाव परिणामों ने सबकुछ बदल दिया। जनता पार्टी – जिसमें कांग्रेस (O), जनसंघ, सोशलिस्ट और अन्य दल शामिल थे – ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए। मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।

आपातकाल के बाद संविधान में 44वां संशोधन किया गया, जिससे यह सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में आपातकाल लगाने की प्रक्रिया को कठिन बनाया जाए और मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित की जाए। साथ ही, आपातकाल के दौरान बंदी बनाए गए नेताओं को रिहा किया गया और लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं पुनः स्थापित की गईं।

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे भयावह अनुभव था। यह उस समय की याद दिलाता है जब संविधानिक ढांचे को व्यक्तिगत सत्ता की भूख के सामने नतमस्तक किया गया था। यह वह समय था जब जनता की आवाज को कुचल दिया गया, मीडिया की कलम को जकड़ दिया गया और कानून के शासन की जगह मनमानी ने ले ली थी।

लेकिन यही वह समय भी था जब भारत की जनता ने यह दिखा दिया कि लोकतंत्र की जड़ें इस देश में कितनी गहरी हैं। 1977 का जनादेश इस बात का प्रमाण था कि भारत के लोग अधिकारों और स्वतंत्रता के महत्व को समझते हैं और जब अवसर मिलेगा, वे अन्याय के विरुद्ध खड़े होंगे। आपातकाल न केवल इंदिरा गांधी के शासन का एक निर्णय था, बल्कि यह एक चेतावनी भी थी – कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए केवल संविधान पर्याप्त नहीं, बल्कि जागरूक जनता, स्वतंत्र न्यायपालिका, निर्भीक मीडिया और मजबूत नागरिक समाज का होना भी उतना ही आवश्यक है।

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