राज्य में तेजी से बस रहे प्रवासी: सरकार से सटीक नीति की दरकार
(सलीम रज़ा, पत्रकार )
उत्तराखंड एक संवेदनशील हिमालयी राज्य है जिसकी भौगोलिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संरचना विशेष रूप से नाजुक है। बीते कुछ वर्षों में यहां जिस प्रकार जनसंख्या संरचना में बदलाव आ रहा है, वह राज्य की सामाजिक समरसता, पारंपरिक संस्कृति और पर्यावरणीय संतुलन के लिए चुनौती बनता जा रहा है। डेमोग्राफिक चेंज यानी जनसंख्या में बदलाव सिर्फ आंकड़ों का मसला नहीं है, बल्कि यह धीरे-धीरे एक ऐसे स्वरूप को जन्म दे रहा है जिसमें मूल निवासियों की भागीदारी और पहचान पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं।
उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में हाल के वर्षों में बाहर से आकर बसने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है। खासतौर पर मैदानी क्षेत्रों जैसे हरिद्वार, उधमसिंह नगर, देहरादून के साथ-साथ अब पहाड़ी जिलों जैसे पौड़ी, नैनीताल, टिहरी और चंपावत तक में भी प्रवासियों की आबादी बढ़ रही है। इनमें से कुछ लोग रोजगार, व्यापार और शिक्षा के उद्देश्य से आए हैं, लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो स्थायी रूप से बसने की मंशा से राज्य में आया है। इसके चलते स्थानीय संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और सामाजिक ताने-बाने में बदलाव आने लगे हैं।
इस तेजी से हो रहे डेमोग्राफिक चेंज को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले सरकार को डेटा आधारित नीतियों की ओर बढ़ना होगा। राज्य को नियमित रूप से प्रवासियों और बाहरी लोगों की जनसंख्या का लेखाजोखा रखना होगा। इसके लिए ग्राम स्तर तक प्रभावी सर्वेक्षण और रजिस्ट्रेशन व्यवस्था बनानी चाहिए ताकि यह पता चल सके कि किस क्षेत्र में बाहरी लोगों की संख्या कितनी है, वे किस उद्देश्य से आए हैं और उनके पास रहने के क्या कानूनी दस्तावेज हैं।
दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम यह है कि राज्य में जमीन खरीदने और बसने को लेकर सख्त नियम बनाए जाएं और उनका ईमानदारी से पालन हो। वर्तमान में भूमि कानूनों में जो ढील दी गई है, वह पर्वतीय क्षेत्रों की आबादी संरचना को प्रभावित कर रही है। जमीन की खरीद-फरोख्त को स्थानीय ग्राम सभा की अनुमति से जोड़ना और उसका सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभाव आंकना ज़रूरी है।
स्थानीय रोजगार को बढ़ावा देना भी इस चुनौती से निपटने का एक रास्ता हो सकता है। यदि उत्तराखंड के युवाओं को उनके गांवों और कस्बों में ही रोज़गार मिलेगा तो उनका पलायन रुकेगा और बाहरी आबादी पर निर्भरता भी कम होगी। इसके लिए स्वरोजगार, कृषि आधारित उद्योग, पर्यटन और पारंपरिक शिल्प को संरक्षित करते हुए आधुनिकरण की दिशा में निवेश करना होगा।
एक और अहम पहलू है – सांस्कृतिक जागरूकता। स्थानीय लोगों को अपनी भाषाओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक पहचान के संरक्षण के लिए जागरूक और संगठित करना होगा। समाज में बदलाव को स्वीकार करना जरूरी है, लेकिन जब बदलाव की गति इतनी तेज हो कि वह मूल स्वरूप को मिटाने लगे, तो उस पर संतुलन बनाना भी आवश्यक होता है।
साथ ही, राज्य की सीमाओं पर सतर्क निगरानी और पहचान सत्यापन की व्यवस्था मजबूत करनी होगी। कई बार देखा गया है कि अवैध रूप से रहने वाले लोग बिना पहचान के रह रहे हैं, जिससे न केवल डेमोग्राफिक असंतुलन होता है बल्कि सुरक्षा संबंधी खतरे भी उत्पन्न होते हैं। स्थानीय पुलिस और प्रशासन को इस पर विशेष निगरानी रखने की ज़रूरत है।
यह भी आवश्यक है कि डेमोग्राफिक चेंज को राजनीतिक लाभ या हानि के चश्मे से देखने के बजाय इसे राज्य के दीर्घकालिक अस्तित्व और पहचान से जोड़ा जाए। एक संतुलित, न्यायपूर्ण और संवेदनशील नीति के माध्यम से ही उत्तराखंड अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक स्वरूप को सुरक्षित रख सकता है। जनसंख्या संतुलन केवल संख्या का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक संतुलन का प्रश्न भी है, और इसे समझदारी के साथ सुलझाना राज्य की प्राथमिकता होनी चाहिए।
photo Source: Google
टिप्पणियाँ