पुलिस सुधार को नहीं बढ़े कदम तो हाथरस जैसी घटनाओं को रोकना होगा मुश्किल



पुलिस व्‍यवस्‍था में सुधार को लेकर आवाजें तो खूब उठी हैं लेकिन इस पर कभी कोई कदम नहीं बढ़ाया गया। इसकी वजह कहीं न कहीं निजी स्‍वार्थ रहा है जो ऐसा करने नहीं देता है। हाथरस जैसी घटना भी इसका ही परिणाम है।




 


मनोहर मनोज 


हाथरस के दुष्कर्म कांड से समूचा देश उद्विग्न है। इस घटना में हमें दिवंगत पीड़िता को लेकर मीडिया में आई दारुण कथाओं की कई दास्तान भी सुनाई पड़ी तो दूसरी तरफ पीड़कों के वीभत्स कारनामों की भी कुछ जानकारियां हम तक छनकर आईं। परंतु सवाल यह है कि इस समूचे कांड को इस मौजूदा स्वरूप में लाने के लिए असल जिम्मेदार कौन था? इस समूचे कारनामे को इस हद तक अंजाम देने वाला और कोई नहीं, बल्कि पुलिस थी। वह पुलिस जिसके पास सभी तरह के अपराधों को नियंत्रण करने, पीड़ित और शोषित की हर व्यथा और उसकी शिकायत के समाधान करने का एक वैधानिक सामर्थ्‍य हासिल है। भारत की पुलिस संवेदनशील बने, कर्तव्यनिष्ठ बने, जनसरोकारी बने, इसको लेकर हम कितनी तकरीरें करते रहेंगे। कितनी बार हम पुलिस के अत्याचारी और भ्रष्टाचारी होने की कमेंट्री करते रहेंगे और उसका चरित्र जस का तस बना रहेगा।


सवाल है कि कब तक यह देश पुलिस सुधारों को लेकर बड़ी करवट लेगा? देश में अनेक सुधारों को लेकर जब विमर्श होता है तो उसको लेकर राजनीतिक प्रशासनिक समाधान व पहल का भी नजारा देखने को मिलता है। परंतु क्या बात है कि पुलिस सुधारों का एजेंडा आजाद व लोकतांत्रिक भारत के करीब 73 साल के सफर के बाद भी अछूता छोड़ा गया है। आखिर क्या वजह है कि विपक्ष में बैठे हर राजनीतिक दल के लिए पुलिस व नौकरशाही उनके राजनीतिक मार्ग का रोड़ा लगती है और यही लोग जब सत्तासीन हो जाते हैं तो पुलिस और नौकरशाही उनके ऐसे बिगड़ैल दुलारू पूत बन जाते हैं जिनको लेकर वे यह सोचते हैं कि यही लोग हमारे सत्ता के सफर के हमारे सबसे बड़े पहरूये हैं।


 


हर सत्ताधारी को ये बात महसूस होती है कि पुलिस को हमारी अनुचरी तो करते रहने दो पर हमारे इशारे पर हमारे राजनीतिक विरोधी व हमारे हितों की पूíत में बाधक लोगों पर पुलिस को जुल्म करते रहने की पूरी इजाजत दो। कथित लोकतांत्रिक रूप से आने वाले सत्ताधारी दल पुलिस को जनता पर अत्याचार और लूट खसोट करने की भी पूरी छूट देते हैं। लेकिन सत्ताधारी को जब इस मामले पर जनता के प्रति अपनी जवाबदेही दिखाने की नौबत आती है, तब वे पुलिस के खिलाफ दिखावे की कार्रवाई कर जनता की हमदर्दी लेने का प्रयास करते हैं। परंतु इन कॉस्मेटिक सुधारों से पुलिस के स्थायी चरित्र पर कोई असर नहीं पड़ता।




भारत में ऐसे कई पुलिस जवान और अधिकारी हुए हैं, जिन्होंने दुर्दांत अपराधियों से मुकाबला करने में अपना बलिदान दिया है, तो दूसरी तरफ कमजोर और लाचार लोगों के लिए रोबिनहुड साबित हुए हैं। परंतु इनकी संख्या बहुत ही कम है। काश हमारे पुलिस का व्यापक चरित्र यही होता। यह बात भी सही है कि हमारे देश में लोग यह भी सोचते हैं कि पुलिस जब तक डंडा नहीं दिखाएगी, तब तक लोग नहीं डरेंगे।



चर्चित पुलिस अधिकारी किरण बेदी पुलिस सुधारों की चर्चा करती थीं, तो वे राजनीतिज्ञों के पुलिस पर नियंत्रण को लेकर सवालिया निशान उठाती थीं। विडंबना ये है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमने जन जवाबदेही केवल निर्वाचित राजनीतिज्ञों की तय की है, तो उस बाबत समूची नौकरशाही पर नकेल कसना अनिवार्य बन जाता है। पर यह बात अलग है कि इस नियंत्रण के पीछे उनकी नीयत जनहित नहीं स्वहित होता है।


पुलिस सुधार के अनेक माड्यूल हैं। इसमें पुलिस के व्यवहार, मुस्तैदी, हथियार प्रशिक्षण और अपने इंटेलिजेंस से अपराध की त्वरित रोकथाम, इन सभी को शामिल किया जा सकता है। पुलिस सुधार के लिए नियामक तैयार होना चाहिए, अन्यथा ऐसे कई हाथरस होते रहेंगे और पुलिस पर ऐसी कई टिप्पणी होती रहेगी। लेकिन नतीजा वही सिफर निकलता रहेगा।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Source:Jagran



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