रावत सरकार की सालगिरह पर कोरोना का ग्रहण 



देहरादून/सरकार की तैयारी जश्न की। सूबे में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार इस दिन अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे करने जा रही है। जश्न लाजिमी भी, आखिर उत्तराखंड के 20 साल छोटे से इतिहास में त्रिवेंद्र रावत अब तक के आठ मुख्यमंत्रियों में दूसरे ही ऐसे हैं, जिन्हें बगैर किसी स्पीड ब्रेकर के तीन साल का कार्यकाल पूरा करने का अवसर हासिल हो रहा है। इससे पहले एकमात्र नारायण दत्त तिवारी, जो पूरे पांच साल इस पद पर रहे, उनका रिकार्ड त्रिवेंद्र बराबर करने की ओर बढ़ रहे हैं। सरकार की तैयारी भी जोरदार, लेकिन ऐन मौके पर मानों पनौती लग गई कोरोना की। अब जबकि, कोरोना वायरस का एक मामला भी सामने आ चुका है तो कोई भी चूक भारी पड़ सकती है। लिहाजा, सरकार ने मौके की नजाकत भांप तीसरी सालगिरह के सब कार्यक्रम कैंसिल कर दिए। मायूस न होइए जनाब, सेलिब्रेशन तो कुछ दिन बाद भी हो सकता है।यूं तो कांग्रेस का बुरा वक्त शुरू हुए अब काफी समय हो चला है, लेकिन ताजातरीन मामला मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार से जुड़ा है। इस सियासी घटनाक्रम से मार्च 2016 में उत्तराखंड में तत्कालीन हरीश रावत सरकार के दौरान हुई पार्टी में टूट की याद ताजा हो गई। कांग्रेस आलाकमान भी शायद इससे भलीभांति वाकिफ है। इसीलिए जब कमलनाथ पर संकट आया तो तुरंत हरीश रावत को सौंप दिया सियासी डिजास्टर मैनेजमेंट का जिम्मा। हरदा ने तब सियासी बिसात पर शातिराना चाल से भाजपा को मात देते हुए अपनी सरकार बचाने में कामयाबी हासिल की थी। लिहाजा, कमल से हाथ को मुक्ति दिलाने और कमलनाथ को अभयदान का मौका देने पहुंच गए जयपुर। हमारी बात हुई तो तड़ से दावा ठोक डाला। बोले, कमलनाथ की सरकार को कोई खतरा नहीं। सभी एमएलए एकजुट हैं और हम सरकार बचा लेंगे। चलिए, जल्द सब क्लियर हो ही जाएगा।हाल ही में चमोली जिले के गैरसैंण में राज्य विधानसभा के बजट सत्र का आयोजन हुआ। सब ठीक-ठाक चल रहा था। बजट पेश हुआ, लेकिन इसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि मामला ही गड़बड़ा गया। न न, ऐसा कुछ नहीं, बस कुदरत का ऐसा कहर बरपा कि सब उलट पुलट। दरअसल, मार्च के महीने में बर्फबारी और वह भी इतनी ज्यादा कि सबके हाड़ कंपकपाने लगे। अब अगर ग्रीष्मकालीन राजधानी में आयोजन शीतकाल में होगा तो ऐसा होना लाजिमी ही है। क्या मंत्री, क्या  विधायक और क्या सरकारी मुलाजिम, सर्दी तो सबको ही सताती है। अब इसका नतीजा यह हुआ कि अगले दिन सदन में सन्नाटा। खासकर सत्तापक्ष तो कुछ ज्यादा ही ठिठुरता नजर आया। विपक्ष ने बैठे-बिठाए मिले इस मुद्दे को तुरंत लपका तो सरकार बचाव में उतर आई। हालांकि, तर्क कुछ भी दिए जाएं, मगर मौजूद सदस्यों की संख्या खुद चुगली कर रही थी कि सच्चाई क्या है।हाल ही में सूबे में सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने संगठन की नई टीम का एलान किया। मजेदार बात यह कि सूबे में व्यापक वजूद रखने वाली इन दोनों पार्टियों के संगठन के आकार में दो तीन या चार गुना नहीं, बल्कि पूरे दस गुना का फर्क है। कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में लगभग 280 नेताओं की लंबी चैड़ी फौज है, जबकि भाजपा में यह आंकड़ा सिर्फ और सिर्फ 28 ही है। हालांकि, अभी इसमें कुछ इजाफे की गुंजाइश बरकरार है। अब जरा, मौजूदा विधानसभा में इनकी ताकत पर एक भी नजर डालें तो तस्वीर बिल्कुल उलट नजर आती है। 70 सदस्यीय निर्वाचित विधानसभा में भाजपा के खेमे में 57 सदस्य और 20 साल की उम्र के उत्तराखंड में 10 साल सरकार चला चुकी कांग्रेस के पास केवल 11 सदस्य। अब दो साल बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। देखते हैं किसका संगठन अबकी बार भारी पड़ता है।


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