धराली की चीत्कार: जब आसमान बरसा मौत बनकर

 




सलीम रज़ा (पत्रकार)

उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में आई आपदा ने एक बार फिर हमें प्रकृति की असहायता और मानव समाज की नाजुकता का गहरा एहसास कराया है। बादल फटने की यह घटना भले ही कुछ मिनटों की रही हो, लेकिन उसका असर उन जिंदगियों पर हमेशा के लिए मन मस्तिष्क पर छप गया ,जो या तो इस आपदा में खो गईं या फिर जिन्दा रहकर भी उस भयानक त्रासदी की यादों के साथ जीने को मजबूर हैं।

इस बार धरती डोली नहीं, लेकिन आसमान से कहर जरूर टूटा। पानी का सैलाब कुछ इस कदर नजर आया कि देखते ही देखते शांत पहाड़ चीखने लगे, बहती नदियों में कराहते लोग डूबने लगे और जिन्दगी अचानक मलबे के नीचे दबने लगीं। गांव के लोग जो कुछ देर पहले तक अपने रोजमर्रा के जीवन में व्यस्त थे, पलक झपकते ही संकट की आगोश में समा गए।

धराली, जो कि उत्तराखंड की शांत व खुशगवार वादियों में बसा एक सामान्य सा गांव था, अब एक खौफनाक त्रासदी का प्रतीक बन गया है। जिन घरों में सुबह चूल्हे जले थे, शाम होते-होते वहां सिर्फ मलबा रह गया। जिन आंखों में बच्चों का भविष्य पलता था, वे अब अपनों की तलाश में पत्थरों और कीचड़ में झांकती नजरें बन गई हैं।

सरकारी अमले ने राहत और बचाव कार्य में खासी तेजी दिखाई, लेकिन पहाड़ की भौगोलिक स्थिति और संचार व्यवस्था की सीमाओं ने इस काम में खलल डाला। हेलीकॉप्टर की गूंज और बचावकर्मियों की पुकारें किसी को नया जीवन दे रही थीं तो किसी को यह एहसास भी करा रही थीं कि जिनके लिए यह सब किया जा रहा है, वे शायद अब कभी वापस नहीं लौटेंगे।

धराली की यह आपदा केवल एक भौतिक नुकसान नहीं है, यह एक मानसिक व सामाजिक नुकसान भी है। पहाड़ों में रहने वाले लोग पहले ही असुरक्षित भूभागों में जीवन जीते हैं। वे हर साल भूस्खलन, बारिश, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं के खतरों से दो.चार होते हैं। धराली की घटना ने इस बात को फिर से उजागर कर दिया है कि पहाड़ी क्षेत्रों में बुनियादी सुरक्षा ढांचे, समयपूर्व चेतावनी प्रणाली और स्थायी पुनर्वास नीतियों की कितनी आवश्यकता है।

जो लोग बच गए हैं, उनके चेहरों परसुकून तो नहीं हां अपनों को खोने का दर्द साफ झलक रहा है। सोचए जरा जब एक बूढ़ी मां, अपने बेटे को सुबह खेत भेजकर लौटी थी, अब गांव के हर कोने में उसका नाम पुकार रही है। एक बच्ची, जो अपनी किताबों के साथ स्कूल जाने को तैयार हो रही थी, अब मलबे के ढेर में अपने पिता की तस्वीर खोज रही है।

मीडिया, प्रशासन, और समाज तीनों ही ने इस दर्द को महसूस किया, लेकिन जब कैमरे हट जाते हैं, अधिकारी लौट जाते हैं और लोग अन्य खबरों में उलझ जाते हैं, तब धराली जैसे गांव अपने दर्द के साथ अकेले रह जाते हैं।

धराली की इस आपदा ने सिर्फ एक गांव को नहीं, पूरे उत्तराखंड को झकझोर कर रख दिया है। यह केवल एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि एक चेतावनी है हमें प्रकृति के साथ तालमे बैठाने की, विकास के नाम पर पहाड़ों के दोहन से बचने की और स्थानीय लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की।

इस आपदा से उबरना आसान नहीं होगा, लेकिन अगर हम वास्तव में संवेदनशील, संगठित और दूरदर्शी नीति अपनाएं, तो शायद धराली जैसे गांव भविष्य में फिर कभी न सिसकें।

यह सिर्फ धराली की कहानी नहीं है, यह उन तमाम पहाड़ी इलाकों की कहानी है, जो हर मानसून में डर के साये में जीते हैं, और हर आपदा के बाद फिर से खड़े होने की कोशिश करते हैं चुपचाप, अकेले, लेकिन एक नई उम्मीद के साथ।

टिप्पणियाँ