सियासत में जातियों की गिनती: क्या बदल जाएगी राजनीति की तस्वीर?
(सलीम रज़ा)
भारत में जाति एक सामाजिक और राजनीतिक हकीकत रही है। स्वतंत्रता के बाद से ही जाति व्यवस्था को खत्म करने की कोशिशें हुईं, लेकिन यह व्यवस्था न केवल समाज में बल्कि राजनीति में भी गहराई तक समाई हुई है। केन्द्र सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला इस ऐतिहासिक संदर्भ में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। यह फैसला भारतीय राजनीति की दिशा और स्वरूप को कई स्तरों पर प्रभावित कर सकता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।जाति जनगणना की सबसे बड़ी मांग सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों की रही है। चाहे बिहार के क्षेत्रीय दल हों (जैसे राजद, जदयू) या उत्तर प्रदेश के (सपा, बसपा), इन सभी ने वर्षों से जातिगत आंकड़ों की मांग की है ताकि पिछड़ी, दलित और अन्य वंचित जातियों को उनकी वास्तविक जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व और संसाधन मिल सकें।जब केन्द्र सरकार ने इस मांग को स्वीकार किया, तो इससे सामाजिक न्याय की राजनीति को ज़बरदस्त ऊर्जा मिली है।
क्षेत्रीय दल इसे अपनी वैचारिक जीत के रूप में देख सकते हैं, और इससे उनका जनाधार और मजबूत हो सकता है।भाजपा, जो लंबे समय तक जाति आधारित राजनीति से दूरी बनाकर “विकास” और “हिंदुत्व” जैसे मुद्दों पर चुनाव जीतती रही, अब इस फैसले के ज़रिए पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अन्य वंचित समुदायों को साधने की कोशिश कर रही है।जाति जनगणना के बाद यदि आरक्षण, योजनाओं और राजनीतिक टिकटों में पिछड़ों का हिस्सा बढ़ता है, तो भाजपा अपनी “सबका साथ, सबका विकास” की छवि को और पुख्ता कर सकती है। साथ ही, विपक्ष के जातीय गठजोड़ को तोड़ने का यह एक रणनीतिक प्रयास भी हो सकता है।कांग्रेस, राजद, जदयू, सपा, बसपा और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को अपने एजेंडे का केंद्र बना सकते हैं। उनके लिए यह एक मौका होगा कि वे भाजपा पर पिछड़ों और दलितों के अधिकारों के सवाल पर और दबाव बनाएं।हालांकि, इससे विपक्ष के भीतर भी चुनौतियाँ बढ़ेंगी। जैसे ही जातीय आंकड़े सामने आएंगे, विभिन्न जातियों के बीच संसाधनों और अवसरों के बंटवारे की नई माँगें उठेंगी, जिससे विपक्षी दलों के भीतर जातीय संतुलन साधना और मुश्किल हो सकता है।
जाति जनगणना से स्पष्ट हो जाएगा कि कौन सी जाति कितनी बड़ी है और उसकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति क्या है। इससे कई नये सामाजिक समीकरण बन सकते हैं। छोटे और उपेक्षित वर्गों को पहली बार राजनीतिक और प्रशासनिक मंच पर आवाज़ मिल सकती है।उदाहरण के लिए, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के भीतर पिछड़े वर्ग (Extremely Backward Castes) और अतिपिछड़ों की आवाज़ और तेज़ हो सकती है, जो अभी तक ओबीसी की छतरी के नीचे दबकर रह जाती थी।अब तक जातिगत राजनीति मुख्यतः उत्तर भारत की विशेषता रही है, लेकिन जाति जनगणना का असर दक्षिण भारत, पश्चिमी भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में भी महसूस किया जा सकता है।
क्षेत्रीय असंतुलन और पहचान की राजनीति का स्वर और ऊंचा हो सकता है। राष्ट्रीय पार्टियों को हर राज्य में स्थानीय सामाजिक ताने-बाने को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी।जाति आधारित आंकड़े आने के बाद सरकारी योजनाओं, आरक्षण नीतियों, और संसाधन आवंटन में बड़ा बदलाव संभव है। इससे सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बेहतर ढंग से समझकर नीतियां बनाई जा सकती हैं, लेकिन इससे नए विवाद भी जन्म ले सकते हैं, जैसे आरक्षण की सीमा, मेरिट बनाम आरक्षण की बहस, या आर्थिक आरक्षण बनाम सामाजिक आरक्षण की बहस।केंद्र सरकार का जाति जनगणना का फैसला भारतीय सियासत में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हो सकता है। इससे न केवल सामाजिक न्याय की राजनीति को नया बल मिलेगा, बल्कि भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए नई रणनीतिक चुनौतियां भी पैदा होंगी। यह फैसला भारत के लोकतंत्र को और समावेशी बना सकता है, बशर्ते इसे सावधानी से लागू किया जाए और जातीय विभाजनों को भड़काए बिना सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ाया जाए।
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