दिल्ली वालों को रास नहीं आई भाजपा की राष्ट्रवाद केमेस्ट्री

 



 


सलीम रज़ा


 



संसद के मंदिर मे बैठने वाले सांसद देश के करोड़ों लोगों के लिए एक आशा की किरण होते हैं जिनसे उनके सपने जुड़े होते हैं। इसीलिए भारत को दुनिया के अन्दर सबसे बड़े और मजबूत लोकतंत्र हासिल करने का गौरव हासिल है। जब-जब भारत के संसद के अन्दर कोई भी सत्र होता है तो पूरी दुनिया की निगाह उस पर होती है यहां तक की संसद की कार्यवाही देखने के लिए भी लोग मौजूद रहते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि पूरी दुनिया के अन्दर भारतीय सियासत और राजनेताओं को खासी तवज्जो और इज्जत बख्शी जाती है।क्योंकि भारत ही एक ऐसा देश है जिसके अन्दर अलग-अलग धर्म, अलग-अलग भाषा,अलग-अलग पंथ के लोग रहते हैं लेकिन एक ही छत के नीचे जिसमें न कोई बिखराव है और न ही कोई डर। लेकिन इक्कीसवीं सदी तक आते-आते सियासत भी क्रिटीकल हो गई अब मुद्दे नेपथ्य में और गुमराही अग्रिम पंक्ति मे रहती है जैसा सियासत का कुचक्र देखने को मिल रहा है। किसी जमाने की जमींदारी प्रथा याद आने लगी जहां सिर्फ सुनने का अधिकार था कहने के लिए मनाही थी,जहां जमाींदार के घर में पचास-पचास मुस्टंडे खाली बैठकर दूध घी ,मक्खन खाकर दण्ड पेलते थे उनका काम सिर्फ ये ही था जिसने जमींदार के खिलाफ बोलने की हिमाकत करे तो माहौल अराजकता का बना दो, जिसके खौफ के साये में लोग या तो घरों में दुबक जाते थे या फिर सड़कों चैराहों पर पटके जाते थे।


 इन्हें भाषा से क्या लेना देना भाषा का सम्मान क्या होता है इसकी परवाह इन्हें कहां थी क्योंकि ये प्योर अनपढ़ जो होते थे। ये बात तो सत्य है जब भी आप किसी अनपढ़ के सान्निध्य में पढ़ा लिखा बैठेगा अपनढ़ ही हो जाता है और अनपढ़ पढ़े लिखे के पास बैठेगा तो उससे चार कदम आगे की सीखेगा। लेकिन अब जो हो रहा है वो इसी का परिणाम है। इस बात को तो मौजूदा पार्टी के नेता भी कहते हैं कि नेता के लिए पढ़ा लिखा होना कोई जरूरी नहीं है सौ फीसद सही कहा तभी तो धीरे-धीरे भगवा रंग फीका होने लगा है। भाजपा के लिए दिल्ली विधान सभा का चुनाव किसी चुनौती से कम नहीं था, अगर ये कहा जाये कि भाजपा के लिए नाक का सवाल था तो शायद कुछ भी गलत नहीं होगा। वहीं दिल्ली चुनाव से पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जे.पी.नड्डा के लिए भी अग्नि परीक्षा का दौर था। खैर दिल्ली की जनता ने भाजपा के राष्ट्रवाद को दरकिनार करके विकास को प्राथमिकता देते हुये एक बार फिर अरविन्द केजरीवाल पर अपना विश्वास जताया है। एक छोटे से प्रदेश कहें तो ठीक ही होगा लेकिन राष्ट्रीय राजधानी के लिहाज से ये भाजपा की अस्मिता का सवाल था जो अब सरे बाजार हो गई। वैसे भी जबसे दिल्ली में आप की आमद हुई तभी से एक बड़ा धड़ा अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ खड़ा हो गया मानो केजरीवाल ने सियासत में कदम रखकर सियासत को अपवित्र करने का काम कर दिया हों। चाहें कोई भी हथकण्डा अपनाना पड़े सभी प्रयोग केजरीवाल के खिलाफ अमल में लाये गये लेकिन विकास के लिए प्रतिवद्ध केजरीवाल ने विपक्षी पार्टियों को उनके ही हथियार से धायल करके दिल्ली का रण जीता है और तीसरी बार दिल्ली का ताज पहन रहे हैं। 


एक बात पर आप जरा सोचे कि दिल्ली में भाजपा के पिछड़ने का मुख्य कारण क्या था तो शायद मेरी सोच कुछ अलग ही हो दरअसल दिल्ली चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जहां एक तरफ राम मंदिर और हिन्दुत्व और हिन्दू हितों की बात करती नजर आई उसकी सोच थी कि हिन्दू मत अपने पक्ष में करने का ये अनमोल हथियार है। तभी तो दिल्ली की आवाम में पाकिस्तान और आतंकवाद का खौफ भरने की कोशिश करी गई थी, और बाकायदा सार्वजनिक मंचों से ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता रहा इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं सबसे बड़ा उदाहरण तो केजरीवाल ही हैं जिन्हें सार्वजनिक मंच से भाजपा के एक सांसद ने आतंकवादी तक कह डाला था। वहीं भाजपा के एक केन्द्रिय मंत्री की सभा में लोगों ने सी.ए.ए का प्रोटेस्ट कर रहे लोगों को निशाना बनाकर कहा था ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ लगाकर  ये संदेश दे दिया कि देश के मतदाताओं ने भाजपा को दुबारा केन्द्र में लाकर बहुत बड़ी भूल करी थी। दरअसल दिल्ली चुनाव में रिलीजियस पोलोराईजेशन के तहत जितने भी प्रयास किये जाते रहे हैं इन्हीं के दरम्यान आपको याद होगा जब चुनावी सीजन के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने एक टी.वी.चैनल पर हनुमान चालीसा पढ़ा था तब भी भाजपाईयों ने उन्हें ट्रोल करने की रणनीति बनाई थी। दरअसल केजरीवाल ने राम-भक्त और हनुमान-भक्त के बीच चुनावी राजनीति से एक नया नजरिया दिखाने की कोशिश आवाम को करी थी जिसमें एक रहस्य छिपा था।


 केजरीवाल आज भाजपा के लाव लश्कर के सामने जिस तरह से चट्टान बनकर खड़े हैं उसक पीछे उनकी स्ट्रेटेजी का बदलाव था। अरविन्द केजरीवाल पहले मोदी और अमितशाह पर हमलावर रहते थे लेकिन जब पंजाब में उनकी पार्टी कोें हार का सामना करना पड़ा और उन्हें लगा कि उनकी लोकप्रियता घट रही है तो उन्होंने सहकारी संघवादकी रणनीति अपनाई । क्योंकि देश के अन्दर मोदी लहर थी जिसके चलते बड़े-बड़े दिग्गजों को चित होना पड़ा लिहाजा केजरीवाल ने एक नया सहकारी संधवाद का नारा ईजाद किया ‘केन्द्र में मोदी, राज्य में केजरीवाल’ और इस सिद्धान्त का इस्तेमाल करके केजरीवाल ने मिशन 2020 में अपनी कुर्सी को खतरे से निकालने के लिए बहृम अस्त्र की तरह प्रयोग किया। ऐसे में उन्होंने आवाम के अन्दर एक पैगाम पहुचाने की कोशिश करी कि वो जनता के मसायल हल करने के लिए मोदी से कहीं ज्यादा उपयोगी हैं। यहां एक नाम का जिक्र करना जरूरी समझता हूं जो शायद ‘‘आप’’ की इस निर्णायक चुनावी युद्ध का सारथी है वो हैं प्रशान्त किशोर जिन्होंने 2020 में केजरीवाल को एक बार फिर अर्श पर पहुंचा दिया बिल्कुल ऐसे जैसे बसपा के लिए सतीश मिश्रा ने। यानि आप’ के चाणक्य ने ‘‘भाजपा’’ के चाणक्य को हरा दिया क्योंकि दिल्ली चुनाव र्पचार अभियान की कमान प्रशान्त किशोर के हाथों में थी। ये स्मरण रहना चाहिए कि 2017 में पंजाब में ‘‘आप’’ को हार का मुह देखना पड़ा था उसमें प्रशान्त किशोर की भूमिका ही अहम थी। वहीं बिहार में एन.आर.सी और एन.पी.आर के खिलाफ नितीश के लचर रवैये से सरकार की आलोचना करने वाले  प्रशान्त किशोर को जनता दल यू से बाहर कर दिया गया था, अगर ये जोड़ी ‘‘ पी.के-ए.के’’ यूं ही बनी रही तो दिल्ली के अलावा कई राज्यों की सियासत की बिसात पलट सकती है। 


 भाजपा कोरी राष्ट्रवादिता की बात करती है जबकि उसकी कई राज्यों में सरकारे हैं लेकिन आवाम त्रस्त है उसका कारण है इनके पास विकास क्षेत्रिय मुद्दों पर नहीं है वल्कि धर्म की राजनीति है जो लोंगों में अपच है। बहरहाल जिस तरह से दिल्ली के चुनावी समर में भारतीय जनता पार्टी ने अपने सैकड़ों सांसदों और कई प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को उतारा जिससे विपरीत बह रही हवा को अपने पक्ष में किया जा सके वो भी राष्ट्रीय मुद्दे और फूहड़ भाषा के साथ जिसमे नफरत ज्यादा दिख रही थी जिसको दिल्ली की आवाम ने केजरीवाल के द्वारा किये गये विकास और स्थानीय मुद्दे की तुला पर तौलकर अपना फैसला दे दिया, यानि कुर्सी पर वो ही राज करेगा जो क्षेत्रीय मुद्दों के साथ होगा । बहरहाल सार ये ही है कि जिस तरह से दिल्ली पर ‘‘आप’’ ने कब्जा किया है वो आने वाले प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में बड़ा सियासी उठा-पटक होने का संदेश है लिहाजा भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव लाना होगा साथ ही क्षेत्रीय मुद्दों पर ध्यान देना होगा क्योंकि धर्म की राजनीति एक बार कामयाब होती है बार-बार नहीं 


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