कविता- जमाना

 


 






 


सलीम रज़ा


 


मैंने जिन्दगी को यूं करवट बदलते देखा है।
कभी दिन में अंधेरा तो रात में उजाला देखा है।
नीले आसमान पर सफेद बादलों के बीच,
जबरदस्ती चांद को झांकते देखा है।
उजाला भी शरमा गया यूं चांदनी की पनाह में,
अब तो अक्सर दिन में अंधेरा देखा है।
शक न कर किसी भी शय पर,शक हराम है,
मगर अक्सर आस्तीनों में सांप देखा है।
जिसकी मौजूदगी में डर ले लेता था पनाह,
एक बार फिर उसी वर्दी को दागदार देखा है।
अब तो परिन्दे भी पशेमां हैं अपनी होश्यारी पर,
जब से सफेद कपड़ों में सययाद देखा है। 
हवाओं मत इतराओ अपनी रफ्तार पर,
कभी आंधियों के गुबार को देखा है। 
अब शाम मयखाने में कहां होती हैं रंगीन,
जब से शवाब को जाम से लिपट़ते देखा है। 
कौन कहता था जमाने की भीड़ से जुदा है रज़ा
 लेकिन अब जमाना भीड़ में,और भीड़ को
े जमाने में गुम होते देखा है।


 


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