कविता- नर


 




अपने दर्द को हँसी में छुपाता है
चेहरे को सिसकियों से बचाता है
दिल टूटने पर भी मुस्कुराता है
शरहद पर लड़कर ;
सब की जान बचाता है
सेनानी बन कुर्बत भी हो जाता है
परिवार के बोझ को उठाता
हर बार हार कर भी ;
हौसला कभी ना हारता है
यह उत्तरदायित्व नर ही उठाता है।।


खुद रोकर भी ना रोता
दूसरों की आसूं पोछता है
दूर रहकर भी
घर की परवरिश करता है
छांव की आकांक्षा में
स्वयं को ही घाव देता है
कभी भाई कभी बेटा
कभी पति बनकर
हरदम सुरक्षा देता है
यह उत्तरदायित्व नर ही उठाता है।।


पढ़ने के लिए बाहर जाता
नौकरी कर बाहर ही रह जाता है
घर से दूरियां झेलकर
खुद को ही भूल जाता है
घर बैठ जाने पर
तानों से नवाजा जाता है
सुन कर जब पक जाता है
तब हाथों में जाम उठाता है
सैलाबों का ढेर भरकर
दिल ही दिल में रोता है
यह उत्तरदायित्व नर ही उठाता है।।


प्यारी माँ और प्यारी पत्नी भी है
बहस पर दोनों को समझता है
एक कि गलती पर ;
दूसरे को मानता है
सहते सहते बोझ तले दब जाता है
बच्चों की परवरिश की चाह में
दूसरे का नौकर बन जाता है
यह उत्तरदायित्व नर ही उठाता है।।


ज़ख्म दिल में भरकर
खुश होने का ढोंग रचाता है
अपनो के दिए दर्द को सहता
फिर भी ;
खुशियां देने की कोशिश करता है
बाहर भूखा है या खाया भी
यह पूछने वाला भी कोई ना होता है
आंखों से आंसू पोछकर
जालसाज दोस्तों के साथ भी
एक नयी उम्मीद जगाता है
यह उत्तरदायित्व नर ही उठाता है।।


© नेहा यादव



लखनऊ उत्तरप्रदेश




टिप्पणियाँ

Popular Post