कविता-ज़िंदगी





 आशीष तिवारी निर्मल //

 
आपाधापी ,भागादौड़ी ,रेलमपेल हो गयी
ज़िंदगी मैट्रो शहर की कोई रेल हो गई ।
 
दो पाटों के बीच में पिस रहा हर कोई ऐसे
ज़िंदगी डालडा कभी सरसों का तेल हो गई।
 
बाबाजी के प्रवचन सुनके घर को लौटा हूं मैं
खबर चल रही है टीवी में,उनको जेल हो गई।
 
हुस्न के कारागृह में चक्की चला रहे कितने ही
मुझ निरापराधी की चंद दिनों में बेल हो गई।
 
टिकते कहां है मोबाइल युग के रिश्ते ऐ-निर्मल
कस्मे,वादे और मोहब्बत जैसे कोई सेल हो गई।
 
 
रीवा

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