वगैर गुरू ज्ञान कहां संभव






 


सलीम रज़ा//

शिक्षक दिवस पर सर्वप्रथम सभी को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं। ये तो सभी जानते हैं कि हमारे जीवन को सुधारने और संवारने में शिक्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है, यदि आपको जीवन में सफलता अर्जित करनी है तो इसमे एक शिक्षक का बहुत महत्वपूर्ण रोल होता है। शिक्षक हमें ज्ञान के साथ-साथ हमारे बौद्धिक विकास और हमारे विश्वास में वृद्धि करके हमारे जीवन को सही संाचे में ढ़ालकर उसे एक नया आकार देते हैं। शिक्षक अपने अध्यापन काल में अनेकों विधार्थियों के जीवन को संवारते हैं तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम उनको धन्यवाद ज्ञापित करें। बस इसी अवसर को मनाने के लिए हर साल आज ही के दिन यानि 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर उन तमाम शिक्षकों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। दरअसल शिक्षा के प्रति समर्पित और शिक्षा से अत्याधिक लगाव रखने वाले हमारे पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन भी है लिहाजा उनके जन्म दिवस को ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा की महिमा के बारे में कहा कि संसार में रहने वाले लोगों को वगैर गुरू के ज्ञान मिलना असंभव है। मनुष्य अज्ञानता रूपी अंधकार में तब तक भटकता रहता है जब तक उस पर गुरू कृपा नहीं हो जाती है, उनका कहना था कि मोक्ष का मार्ग दिखाने वाला भी गुरू ही होता है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि, ‘‘शिक्षा का मतलब अपने दिमाग में सूचनाओं को भरना नहीं है वल्कि उनका सही उपयोग करना ही सच्ची शिक्षा है। शिक्षा का उददे्श्य ही मनुष्य को व्यवहारिक बनाता है। वैसे भी हमारे देश में गुरू-शिष्य परम्परा को हमेशा ही शीर्ष पर रखा गया है, सनातन धर्म में शुरू से ही गुरूओं के सम्मान की परम्परा रही है धर्म गं्रथों में भी गुरू-शिष्य परम्परा के अनेकानेक बर्णन दर्शित हैं जिन्होने गुरू-शिष्य की महिमा और परम्परा को शीर्ष पर पहंुचाया है।

इसी परम्परा में एक बर्णन भागवान शिव का है उन्होंने भी गुरू बनकर अपने शिष्यों को परम ज्ञान प्रदान किया है। अगर हम वर्णनों को देखे तो देवताओं में गुरू वृहस्पति का नाम प्रमुख है, शुक्राचार्य भी महान गुरू कहे जाते हैं। लेकिन वक्त के साथ-साथ गुरू की भूमिका पर भी सवाल उपजना शुरू हो गये हैं इस क्रम में सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा होता है कि क्या आज के दौर में शिक्षकों की भूमिका में बदलाव आया है। क्या ये ही सबसे बड़ी वजह बनती जा रही है कि शिक्षकों के प्रति शिष्यों की भावनाओं में तबदीली आई है इस बात का उत्तर तो सटीक नहीं मिल पाया लेकिन हम इस बात को अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं कि मौजूदा दौर में पढ़ने और पढ़ाने वालों के बीच तकनीकी व्यवस्था ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। देखा ये जा रहा है कि अब भविष्य की पीढ़ियां शिक्षकों से ज्यादा तकनीक से शिक्षा अर्जित करेंगी अगर हम ये कहे कि विज्ञान ने इतना विकास कर लिया है कि विज्ञान एक माउस क्लिक प्रक्रिया है इसे कहने में कोई गुरेज नहीं है, लिहाजा शिक्षक को बदलना होगा,क्योंकि इस कोरोना काल में शिक्षकों की भूमिका का एक बहुत बड़ा हिस्सा तकनीक के हिस्से में चला गया है। हालांकि कोरोना काल का वो भयावह कांलखंड खत्म हो चुका है लेकिन ये बात तो तय है कि अब पढ़ने और पढ़ाने की जो नई भूमिका आई है इसी का परिणाम है कि अब छात्रों को स्कूल बन्द होने के वावजूद उन्हें डिजिटल क्लासेज के जरिए शिक्षा दी जा रही है। इसी को लेकर कहा जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

आधुनिक परम्परा में गुरूकुल का स्थान स्कूलों ने ले लिया है और शिक्षकों ने गुरूओ के स्थान को प्रतिस्थापित कर दिया है अब ये गौरवशाली परम्परा जोें त्याग,समर्पण और सम्मान के दौर से गुजरती हुई महज औपचारिकता में सिमट कर रह गई है। अमुमन देखा ये जा रहा है कि आधुनिक स्कूल, कालेज शिक्षा के मूलभूत उददे्श्य ज्ञान के जरिए विवेक की स्थापना को छोड़कर व्यवसायिक सोच के संवर्द्धन में लग गये हैं, ये ही वजह है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है और जब कोई चीज व्यवसाय का रूप ले लेती है तो उसके क्षेत्र में कार्य करने वाला उस संस्था के लिए वित्तपोषण का कार्य करता है, ऐसे में शिक्षक स्कूलों के लिए वित्तपोषित मार्गदर्शक की भूमिका में आ गया है। आज आप देख ही रहे होंगे कि शिक्षा अर्जित करना आसान काम नहीं कहा जा सकता है आलम ये है कि शिक्षा भी लाखों की फीस देकर हासिल की जा सकती है जिसमें ऐसी सुख सुविधाये होती हैं जो किसी फाइव स्टार होटल में मिलने वाली सुविधाओं से कम नहीं होती। फिर येे कयास लगाना और आसान हो जाता है कि ऐसे मंहगे संस्थानों में शिक्षक का स्थान क्या होगा। अगर हम कहने और लिखने पर आयें तो शिक्षा और शिक्षक को लेकर न जाने कितने अंलकारों से सुसज्जित उदाहरण पेश कर सकते हैं। लेकिन ये शिक्षक के सम्मान के लिए एक स्वस्थ परम्परा नहीं कही जा सकती है।

शिक्षक एक दीपक की तरह होता है जो खुद जलकर छात्रों के जीवन में प्रकाश फैलाता है लिहाजा शिक्षक का भी दायित्व बनता है कि उनका प्रकाश धूमिल न होने पाये इसके लिए उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ती है। आज आप देखते हैं कि वर्षों से अध्यापन करते चले आ रहे शिक्षकों को विनियमतीकरण की आस आज भी है जो शायद धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है। सरकारी शिक्षकों के हाल दिन व दिन बद्तर होते जा रहे हैं वे अपनी मांग पूरी कराने के लिए विभागों की चरण वन्दना करते-करते अवसाद में आ जाते हैं जिससे छात्रों के पठन-पाठन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है लिहाजा सरकार को भी चाहिए कि शिक्षकों की समस्याओं का हल उनकी प्रथमिकता में शामिल करेे जिससे शिक्षक शांत मस्तिष्क के साथ-साथ अपने लक्ष्य के साथ ईमानदारी कर सके। ये तभी संभव होगा जब सरकार इस ओर उदासीन हो और छात्र भी अपने दायित्व को समझें। शिक्षक दिवस उस महान शख्सियत के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है जो शिक्षा के प्रति समर्पित थे लिहाजा शिक्षकों को भी उनके आदर्शों पर चलना होगा सरकार सिर्फ शिक्षक दिवस के रूप में औपचारिकता निभाकर अपने कार्यों की इतिश्री कर देती है जबकि मौजूदा कोरोना त्रासदी में कई शिक्षकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा तो न जाने ऐसे कितने शिक्षक है जो कम वेतन में अपना जीवन यापन करने को मजबूर हैं। मैंने ऐसे कई वाक्ये देखे जिसमें प्रइवेट स्कूलों के शिक्षको को अपना परिवार पालने के लिए दूसरा कार्यक्षेत्र तलाशना पड़ा है जो किसी त्रासदी से कम नहीं है। बहरहाल आज आलम ये है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण ने शिक्षा और शिक्षक की परम्परा को तार-तार कर दिया है।

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