पर्यावरण पर भारी पड़ रही आस्था


सलीम रज़ा
हिन्दुस्तान ही एक ऐसा मुल्क है जिसके अन्दर पर्यावरण और धर्म का गहरा रिश्ता है। कुदरत ने जितनी भी चीजें इस धरती पर उतारी हैंसभी का अपना-अपना महत्व है। जहां एक तरफ इस्लाम में इस बात पर जोर दिया गया है कि जो भी भी चीज इस जमीन पर उतारी गई है उसकी हिफाजत करना आदम जात की जिम्मेदारी है। इस्लाम की तालीम है कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाओ और वातावरण को हरा-भरा रखों,यहां तक कि इस तालीम में पेड़ लगाने को सदका कहा गया है तो सींचनेपर सबाब करार दिया गया है ठीक उसी तरह जिस तरह से जैसे किसी इंसान को पानी पिला दिया। सिक्ख धर्म में पेड़ और हरियाली को आदर सत्कार की नजरों से देखा जाता है इसी धर्म में पेड़ को भगवान का दर्जा देते हुये विश्व का मूल बताया गया है। अगर बात करें जैन धर्म की तो इस धर्म का मूल आधार ही पर्यावरण की हिफाजत करना है गरज ये है कि सभी णर्मो में पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया गया है लेकिन वावतूद इसके पर्यावरण संरक्षण की जितनी भी बद से बदतर हालात देखे जा रहे हैं शायद ही पहले कभी देखे होंगे, नतीजा ये हो रहा है कि आज के युग में हवा,पानी,नदिया,खाना सबका सब प्रदूषित हो रहा है। क्या आप जानते हैं कि इस प्रदूषण की वजह से विश्व की एक बड़भ् आबादी इसके दुष्परिणाम झेल रही है विश्व स्वास्थ संगठन की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोग काल के ग्रास में समा जाते हैं और दुनिया भर में 1 करोड़ के करीब बच्चे जहरीली हवा में सांस लेने के मजबूर हैं कितना भयावह है कि पूरे विश्व में देषित हवा और पानी से साल भी में होने वाली मौतें किसी युद्ध में होने वाली मौतों से ज्यादा हैं। इन सबके लिए बढ़ती आवादी, शहरीकरण के साथ-साथ तेजी से हो रहा आद्यौगिककरण के साथ धार्मिक गतिविधियां भी पर्यावरण को तेजी के साथ नुकसान पहुंचा रही हैं। 


हमारा देश एक ऐसा देश है जो धरती से लेकर प्रकृति की तरफ से भेजी गई हर चीज में आस्था रखने के साथ पूजता भी है ये ही एक ऐसा देश है जो धरती और नदी को मां का दर्जा देता है लेकिन कितना दुखदायी है कि आज उनके बेटे ही अपनी मां के स्वरूप को बिगाड़ रहे हैं। क्या ये बात भी आपकी जानकारी में नहीं है कि हर रोज बहुत बड़ी तादाद में आद्यौगिककचरा, मलमूत्र नदियों में डाला जा रहा है तो वहीं 50 हजार लीटर से ज्यादा गंदा पानी नदियों ,तालाबों और भूमिगत  जल में रोजाना मिलता है एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 14 हजार किलामीटर के क्षेत्र में नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं 511 छोटी बड़ी नदियों में तीन सौ से ऊपर नदिया प्रदूषित हो चुकी हैं। सवाल ये उठता है कि सभी धर्मों में पर्यावरण को तरजीह देने के वावजूद ऐसे हालात क्यों और कैसे पैदा हुये। अगर हम बिशेषज्ञों की बात मानें तो उनका कहना है कि इन हालातों की देन धार्मिक आडम्बर है जो धर्म की आड़ लेकर किया जाता है उनका ये भी कहना है कि ऐसे हालात तब पैदा होते हैं जब इंसान अपने धर्म को भूलकर प्रकृति से श्रेष्ठ मानने लगता है।आज आर्थिक संपन्नता,बाजारवाद और आघौगिक क्रान्ति ने इंसान को धर्म से विरक्त कर दिया है, ये ही वजह हो सकती है कि आघौगिक क्रान्ति के बाद इंसान ने प्रकृति पर नियंत्रण करने की कोशिश करी है इसी घंमंड और गुरूर में जीने वाला इंसान ये सोचने लगा है कि वो प्रकृति का अंग नही है वल्कि प्रकृति उससे है दरअसल प्रकृति को नुकसान धर्म की गलत व्याख्या देने से उत्पन्न हो रहा है।


 अब देखिए हर साल कितनी बड़ी तादाद में मां दुर्गा, मां काली और भगवान गणेश की मूर्तियां नदियों में विसर्जित करी जाती है, मूर्तियां विसर्जित करी जाती हैं लेकिन अब भी आप को ये बताने की जरूरत है कि आज बाजारवाद और आडम्बर के जाल में फंस कर हम ये भूल बैठे कि ये मूर्तियां प्लास्टर आफ पेरिस,सीसा,खतरनाक रासायनिक पेटस से तैयार की जाती है उनके विसर्जन से जल प्रदूषित तो होना ही है जिसके दूरगामी खतरनाक नताईज से हमें दो चार होना ही पड़ेगा क्योंकि हम खुद धर्म और आस्था के नाम पर पर्यावरणको नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये बात सामने आ चुकी है कि धार्मिक गतिविधियाां ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का कारक हैं इसके अतीत में सवाल ये उठता है कि पर्यावरण को बचाने का मुख्य रास्ता धर्म से होकर गुजरता है लेकिन इसे बिडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि आज पर्यावरण असंतुलन की वजह धार्मिक नेता ग्लोबल टैम्प्रेचर और क्लाईमेट चेंज को मानते है। सन् 2015 में हिन्दू अध्ययन केन्द्र ने एक घोषण पत्र जारी किया था इसमें कहा गया था कि इंसान को प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर चलना चाहिए और धरती की हिफाजत करनी चाहिए। बहरहाल पर्शवरण संरक्ष्ण का रास्ता धर्म से ही निकलकर आता है तो ये कहना उचित है कि जितना इंसान धार्मिक प्रवृति का होगा वो पर्यावरण के प्रति उतना ही जागरूक और जिम्मेदार होगा क्योंकि धर्म ने ही पर्यावरण के प्रति सचेत होने में अपनी अहम जिम्मेदारी निभाई है। 


बहरहाल आज पर्यावरण को लेकर इस कदर सवाल उठ रहे हैं लोगों को जागरूक किया जा रहा है लेकिन आस्था हर चीज पर भारी नज़र आती है अगर धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार जीवन के अधिकार के लिए घातक हो जाये तो जीवन के अधिकार को तरजीह मिलनी चाहिए अब देखिये दीपावली पर ध्वनी और पटाखें जलने से निकले जहरीले की वजह से वायु प्रदूषण का मानक बहुत ज्यादा ऊपर चला जाता है लिहाजा इसे ध्यान में रखते हुये उच्चतम न्यायालय को समय-समय पर इस संदर्भ में आदेश निर्गत करने पड़ते हैं। बहरहाल ये बात किसी हद तक ठीक है कि आडम्बर से इंसान धार्मिक नहीं होता लेकिन आज लोग आडम्बर को ही धर्म समझने  लगे हैं आजकल लोगों की इच्छायें भोगवादी हो गई हैं जिसके चलते समाज किस और जा रहा है कह पाना मुश्किल है। हम सब का ये दायित्व बनता है कि हमे अपने धर्म का अनुसरण करते हुये अपने समाज को उससे रूबरू करायें  मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि धर्म ही पर्यावरण की हिफाजत कर सकता है लेकिन शर्त ये है कि हमें अपने धर्म में बताये गये मूल उद्देश्य को भी समझना होगा। 


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